मंगलवार, 15 जुलाई 2014


गीत
इन होठों पर नाम तुम्हारा


न होठों पर नाम तुम्हारा
दहकेगा ही इस सावन में।

कितने मौसम बीते तनहा
सूनी-सूनी राहें चलते।
इन नयनों ने देखे जाने
कितने दिन उगते-ढलते।
घर लौटूं तो मिल ही जाए
शायद ख़त  तेरा आंगन में।

तेरी यादों से सींचा है
मैंने अपनी मन-बगिया को।
छांव तले तुलसी चौरे की
रख दी धड़कन की डलिया को।
छिपने को आतुर हैं कितने
फूल तुम्हारे शुचि दामन में।

सच्ची लगन हृदय में हो तो
अभिलाषा होती है पूरी।
बरसों की तनहाई मिटती
कम होती जाती है दूरी।
ऐसा ही तो कुछ सीखा था
पीछे छूट चुके बचपन में।

आशा का पंछी स्पंदित
आता होगा आने वाला।
गीतों की पावन राहों में
रुनझुन राग सुनाने वाला।
मन-मूरत के आगे तब से
बैठ गया है मन पूजन में।
(चित्र-गूगल से साभार)
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'

बुधवार, 7 मई 2014

कविता

फूल और कली.....
किसी ने बगीचे में बैठकर
एक प्रेम-गीत लिखा
तो एक फूल खिल गया।
एक कली को फूल का
साथ मिल गया।
अब खिलने को आतुर
कली खिलखिलाती है,
फूल हंसता-गाता है तो
किसी को क्यों
एतराज होता है
किसी का क्या जाता है?
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'


बुधवार, 26 मार्च 2014


कविता
प्यारा-सा शब्द प्यार.....
मौसम चाहे कैसा भी हो
किसी भी देश का हो,
कोई फर्क नहीं पड़ता।
बस, अकेले होने पर ही सताते हैं
मौसम के विविध रंग।
लेकिन जब साथ होता है कोई
तो बांटते-बंटाते सुख-दु:ख.....
संग-साथ होने का एहसास दिलाते
हंसते-हंसाते बिता देते हैं मौसम के रंग।
दुश्मनी के अनेक रंग हो ही नहीं सकते
सिवाय एक सुर्ख रंग बहा देने के
लेकिन प्यार के तो विविध रंग होते हैं
और प्यार में डूबा सुर्ख रंग भी
बहुत प्यारा लगता है.....
प्यार तो चन्द्रमा है, पुष्प की सुगंध है,
बहता नीर है, समीरण है,
उमड़ता-घुमड़ता बादल है,
तारों की झिलमिलाहट है.....
दोस्ती के नाम पर दुश्मनी का
खलनायकी संदेश फैलाने वाले
हरकारो!
जब कभी तुम भी
अलग-थलग पड़कर
थकावट महसूस करो
यदि तुम्हें भी
प्यार करने वालों की तरह
एक होकर जीने की
अभिलाषा होने लगे,
मौसमों के सुख-दु:ख
बांटने-बंटाने की चाह
सताने लगे, तो
सबसे पहले मन की
खिड़की खोलकर रखना।
प्यार भरी दस्तक देती
सूर्य की पंछी-रश्मियां
उन रंगों से सराबोर कर देंगी
जिन रंगों को तुमने इंद्रधनुष में ही
देखा होगा।
फिर तुम
प्यार करने वालों से,
प्यार करने का सलीका सीखना।
और तुम पाओगे कि अरे,
प्यार में डूबा सुर्ख रंग भी
बहुत प्यारा लगता है.....
प्यारा-सा शब्द प्यार.....!!

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'


















शनिवार, 22 मार्च 2014

गीत.....
गा रे ओ मौसम बनजारे
 
  






  


झूम रही फागुनी हवाएं
गा रे ओ मौसम बनजारे।

नयनों के हैं स्वप्न सिंदूरी
छूकर प्रीत निहाल हो गई।
दिल की रीती सूनी झोली
फिर से मालामाल हो गई।
पाँव नहीं थमते धरती पर
पिया-पिया अब हिया पुकारे।

सोंधीली माटी मधुमासित
मन के टोहे अर्थ बताए।
मुग्धा दूब निहारे पथ को
गीत फागुनी उसे रिझाए।
राज़ पलक के होठ छू रहे
होती बातें सांझ-सकारे।

फूलों की आशिक है बुलबुल
कहती तुम मेरे हो मेरे।
बहुत हो चुकी आंख-मिचौली
कभी अंधेरे, कभी उजेरे।
आसमान पंखों में सिमटा
धड़कन सुनते चांद-सितारे।

तन-प्राणों में विश्वासों का
इन्द्रधनुष सीखा मुसकाना।
मन के मीत, पंथ के साथी
देखो मुझको भूल न जाना
शगुन रस्म को चले निभाते
दो आंसू ये प्यारे-प्यारे।
गा रे ओ मौसम बनजारे।

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
 

गुरुवार, 13 मार्च 2014


स्व. प्रकाश जैन 
(28 अगस्त, 1926 - 13 मार्च, 1988)
कवि, साहित्यकार और लहर के यशस्वी संपादक स्व. प्रकाश जैन की पुण्य-तिथि के अवसर पर
 
'बोलिए, अब आपका क्या विचार है?'
श्रद्धेय प्रकाश जी से मुझे भी बहुत स्नेह मिलता रहा है। स्व. प्रकाश जैन की पुण्य-तिथि के अवसर पर  बरसों पुरानी यादें स्मृति में तिर आईं। याद आता है, जब राजस्थान साहित्य अकादमी ने महाविद्यालय स्तर पर कविता के लिए प्रथम पुरस्कार की घोषणा की थी, तब श्री प्रकाश जैन ने स्वयं मेरे घर आकर मेरी पीठ थपथपाई थी। इसी तरह जब मेरे पहले-पहले काव्य-संग्रह सूरज का लहू: पोस्टर की न केवल भूमिका लिखी बल्कि उसके मुद्रण तक में व्यक्तिगत रूप से रुचि ली। स्थानीय सूचना केंद्र में उस पुस्तक का विमोचन हुआ था। तत्कालीन जनसंपर्क अधिकारी द्वारा मुझे यह कह कर हतोत्साहित किया गया था कि हॉल के बजाय संगोष्ठी-कक्ष में ही विमोचन करवा लें। विमोचन समारोह में घर वालों सहित दस-बीस लोगों से अधिक मौजूद नहीं रहते। उनमें भी दो-चार लोग सूचना केंद्र के भी शामिल हैं। उनके मन में कहीं न कहीं ऐसे समारोह के प्रति उदासीनता के भाव का कारण संभवत: यह था कि अजमेर के एक वरिष्ठ प्राध्यापक-साहित्यकार की दो पुस्तकों का विमोचन दिल्ली से आए एक वरिष्ठ लेखक ने तीन दिन पूर्व ही किया था। जिसके हवाले से उन्होंने मुझे यह बात कही थी।  
मैंने इस बारे में श्रद्धेय प्रकाश जी से बात की, मेरे अग्रज श्री अनिल लोढ़ा, सुरेन्द्र चतुर्वेदी, गोपाल गर्ग, आदरणीय कान्ता मारवाह, डॉ. हरीश सहित अन्य सभी लोग, जो मुझे सदैव स्नेह देते थे, सभी ने उत्साह दिलाया।
उक्त विमोचन समारोह सूचना केंद्र के हॉल में ही हुआ। प्रकाश जी के सुझाव पर मैंने निमंत्रण-पत्र छपवाए थे। उन्हीं के सुझाव पर व्यक्तिगत तौर पर अपने तमाम प्रियजनों को घर पर देकर आया था। 'जब आप व्यक्तिगत रूप से किसी को आमंत्रित करते हैं तो उसके कार्यक्रम में आने की संभावना अधिक बढ़ जाती है', प्रकाश जी का यह मंत्र मेरे काम आया था। शायद ही कोई ऐसा होगा जो नहीं आ सका हो। शायद..... इसलिए कि मैं ही उन्हें आमंत्रित करने से चूक गया होऊंगा, ऐसा मैं मानता हूं.....बहरहाल, सूचना केंद्र का हॉल शहर के तमाम गणमान्य अतिथियों खचाखच भर गया था।  विचारोत्तेजक माहौल बन गया था। कविता पर खूब चर्चा हुई और समारोह लगभग डेढ़ घंटे तक जीवंत प्रस्तुति से ओतप्रोत रहा। संयोग से तत्कालीन जनसंपर्क निदेशक महोदय जो उस दिन अजमेर आए थे, सूचना केंद्र में, उन्हें वही जनसंपर्क अधिकारी महोदय मेरी पुस्तक के विमोचन समारोह में मंच पर आसीन करवाने के लिए आतुर हो गए थे। स्व. प्रकाश जैन के निर्देश पर हमने उन्हें सादर आमंत्रित किया था। (बाद में उन्होंने मुझे पत्र द्वारा बधाई भी दी थी।)
कवि अजमेर का, प्रकाशक अजमेर का, श्रोता -आयोजक अजमेर के, तो फिर विमोचन जिनसे करवाया जाए वो भी अजमेर के ही होने चाहिए और श्री प्रकाश जैन ही विमोचन करेंगे। प्रकाश जी का कहना था कि चूंकि पुस्तक की भूमिका उन्होंने ही लिखी है, अत: उनके द्वारा ही विमोचन.....यह ठीक नहीं.....लेकिन यह मेरी जिद थी। बाहर से किसी को बुलाने में संशय था कि यदि वे नहीं आ पाए तो....और हुआ भी यही था। दिल्ली से श्री राजेन्द्र अवस्थी जी को न्योता दिया था, लेकिन उन्होंने मेरे संशय को ही बल दिया और वे नहीं आ सके......'अपरिहार्य कारणों से आने में असमर्थ हूं, क्षमा चाहता हूं....कार्यक्रम की शुभकामनाएं .....'  प्रकाश जी को यह संदेश दिखाया गया और कहा- 'बोलिए, अब आपका क्या विचार है?' प्रकाश जी के पास अब बच निकलने का कोई रास्ता नहीं था। 'बेटा सुधीर, तुम्हारी जिद को मानना ही पड़ेगा।' और उन्होंने मेरी उस तरुणाई की जिद को भरपूर मान दिया। पूरे उत्साह से कार्यक्रम में न केवल सक्रिय भागीदारी दिखाई बल्कि ओजस्वी वक्तव्य भी दिया। बाद में उन जनसंपर्क अधिकारी ने आश्चर्य-मिश्रित शब्दों में स्वीकार किया था कि हां, ऐसा भी विमोचन समारोह हो सकता है.....
हम अक्सर देखते थे कि बड़े-बड़े साहित्यकार जब अजमेर आते थे, प्रकाश जैन से उन्हें सहज रूप से बतियाते देखते थे, तब यदि हम जैसे नौसिखिए भी उनके पास बैठे होते थे तो वे हमारा भी परिचय करवाना नहीं भूलते थे। रेल पटरी के उस पार, उनके घर तो जब मरजी होती, जाते ही रहते थे। आदरणीया मनमोहिनी जी वैसा ही लाड-प्यार दिखाती थीं, हिमांशु और संगीत भी उतना ही स्नेहिल भाव दर्शाते थे।
स्व. प्रकाश जैन देश के जाने-माने साहित्यकार एवं कवि थे,'लहर' पत्रिका के संपादक के रूप में जाने जाते थे, यह सब हमें अपने बचपन के दिनों से ही ज्ञात था। इतने बड़े कवि जितने सहज उतने ही घर के सदस्य भी। बिलकुल घरेलू वातावरण। कहीं कोई घमंड, पाखंड नहीं, सरल, सहज सहृदीय अपनापन। मैं ही नहीं, मेरे जैसे अनेक साथी भी इस बात के साक्षी होंगे।
उन दिनों जब भी कोई बड़ा कवि अजमेर में आता, रास्ते में श्रद्धेय प्रकाश जैन मिल जाते, बड़े भाई अनिल लोढ़ा मिल जाते, गोपाल गर्ग, सुरेन्द्र चतुर्वेदी मिल जाते, तुरंत रोक कर बताते अथवा संदेश भिजवा देते कि अमुक कवि, आज अजमेर में हैं, उनके सम्मान में अमुक स्थान पर (वैसे स्थान अधिकतर सूचना केंद्र ही होता था।) कवि-गोष्ठी रखी है, शाम चार बजे, डायरी लेकर पहुंच जाना..... और हम पहुंच जाते थे। हम उदीयमानों को भी तब उतनी ही वाह-वाही मिलती थी कि बाहर से आने वाला अतिथि कवि भी देखता ही रह जाता था।
इतना हौसला अफजाई, इतना प्रोत्साहन....यह प्रकाश जैन ही की देन थी, जिसे ऊपर वर्णित नाम वाले भी सहजता से निभाते रहे.....
पता नहीं, क्या अब भी अजमेर में वैसा ही अपनापन, वैसी ही आत्मीयता, वैसा ही छोटों के प्रति बड़ों का लगाव, बड़ों के प्रति छोटों का आदर सम्मान और आगे बढ़ाने का निस्स्वार्थ भाव, और वैसी ही जीवंतता है?
अभी बस इतना ही..... मैं भी कुछ कहने का लोभ संवरण नहीं कर पाया और श्रद्धेय प्रकाश जी की स्मृतियों में कुछ क्षण खो गया।

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
मो. 09413418701
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013


लघु कथा
हड़बड़ी 

पूनम पीहर आई हुई थी। उसकी नई भाभी उसके लिए चाय लेकर आई। पूनम ने देखा-भाभी को। वह जैसे आत्मविश्वास से स्वयं को भरपूर बनाए रखना चाह रही थी। लेकिन वह डगमगा ही गया। टेबिल पर ट्रे रखते समय कप से चाय छलछला ही गई। माँ ने उसे डांटा-''बहू तुमसे कोई भी काम कभी ठीक से नहीं होता। अरे यह तो पूनम थी, सोचो यदि कोई और होता तो तुम्हारे इस फूहड़पन पर न जाने क्या सोचता। क्या तुम अपने घर में भी इसी तरह काम करती थीं ? कभी माँ ने सिखाया नहीं काम का सलीका ? ऐसी भी क्या हड़बड़ी ?'' नई बहू सिर झुकाए जाने लगी।
''भाभी यहां बैठो।'' पूनम ने भाभी के हाथ पकड कर बैठा लिया। सकुची, सहमी बहू बैठ गई।
''हां बेटा पूनम और सुनो, तेरी सास तुझे तंग तो नहीं करती न ?''
''नहीं माँ, बिलकुल नहीं।''
''देखा, इसे कहते हैं संस्कार। मैंने इसे हर काम को सलीके से करने की आदत जो डलवाई थी। भाग खुल गए तेरी सास के तो, जो उसे इतनी समझदार बहू के रूप में मेरी बेटी मिली है।''
माँ ने बहू की ओर देखते हुए कहा- ''एक मैं हूं जो इसे झेलना पड़  रहा है।''
पूनम ने भाभी की ओर देखा। उसकी आँखें गीली हो आई थी। उसने भाभी के आंसुओं को गालों पर आने ही नहीं दिया। हाथ बढा कर आंसू पोंछ दिए। माँ हुअं करके रह गई।
पूनम बोली, ''हां माँ, सुनो! मेरी सास बहुत समझदार है। किस बात को कब, किस तरह कहना है, यह वो अच्छी तरह जानती है।''
''क्या मतलब ?''
''माँ, क्या आप समझती हैं कि मुझसे वहां कभी कोई गलती नहीं हुई होगी ? आपको बताऊं। जब मैं नई-नई ही थी, सासू जी की दो सहेलियां आई थीं। मैं उनके लिए ट्रे में पानी के गिलास रख कर ले गई। मुझसे भी ट्रे टेबिल पर रखते हुए एक गिलास गिर गया था। सारा पानी बह गया।''
''फिर..... तेरी सास ने तुझे डांटा तो नहीं ?'' बीती हुई बात को आज जानकर माँ घबरा गई।
''नहीं माँ, बिलकुल नहीं। उन्होंने कहा- ''बिटिया, ठीक से खाओगी-पीओगी नहीं तो हाथ से बर्तन ही छूटेंगे..... सारा वातावरण सहज हँसी से भर उठा। फिर सास ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरकर कहा-''बेटी, जाओ आराम कर लो। सुबह से काम कर रही हो। जबकि माँ, मैं तो सुबह देर तक सो कर उठी थी। मैं जब जाने लगी थी तो सास के ये शब्द मेरे कानों में पड़े , ''नई नई है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। नई जगह, नए लोगों के बीच एडजस्ट करने में समय तो लगता ही है। धीरे-धीरे प्यार से समझाकर पारंगत कर दूंगी।''
उसने देखा, माँ की ओर कि वो भी समझ गई थी कि सास की हड़बड़ी  ठीक नहीं है। तभी उसे प्रमाण भी मिल गया। माँ ने भाभी के सिर पर हाथ फेरा था। भाभी की आँखों से इस बार दो मोती निकल ही आए। पूनम ने इस बार उन्हें बहने दिया। हां, उसने महसूस किया कि इस बार माँ की आँखें भी गीली हो आई हैं। उसे माँ, भाभी की सास नहीं, बल्कि उनकी भी माँ ही दिखी। वह आश्वस्त हो गई।
-सुधीर सक्सेना ’सुधि'

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

सुधीर सक्सेना 'सुधि'की कविताएं


चार कविताएं 
1.
हमारे होने के ख़िलाफ़
रात होगी, उजाला दुबक जाएगा
तब हम लालटेन जलाएंगे
और कुछ देर बाद
पेड़  के नीचे, चौपाल पर बैठे
एक-दूसरे के चेहरे पढ़  रहे होंगे
हमारे हाथों में कागजी संबंध
फड़फड़ा  रहे होंगे
और छोटे बच्चे
कच्ची नींद से जाग कर देखेंगे
संभव है
हम निःशब्द हो जाएं
और तोडता चला जाए समय
हमारी प्रतिबद्धताएं
तब
सिर्फ सन्नाटा होगा
हमारे होने के ख़िलाफ़
क्या बच्चे
सुबह हमें कर देंगे माफ ?

2. 
 हर बार.....
र बार ऐसा होता है
कि मेरे भीतर की दीवार ढह
जाती है और आंगन में खिलकर झरे
फूलों की बिरादरी बह जाती है।
न वापिस दीवार चुनी जाती है,
न ही बह चुकी पंखुड़ियां
समेटी जाती हैं।
झुलसा देने वाली दोपहरी में
गुलमोहर तले मेरे भीतर का लावा
अकेले क्षणों को तोडकर
बाहर आ जाता है।
सन्नाटों को बुनने का यही तो वक्त होता है,
जब आसपास कोई नहीं होता,
तब चाह कर भी शून्य से
नहीं निकल पाना मेरी मजबूरी होती है।
बेबुनियाद अपनेपन की पीडा को
हथेली पर उतार कर मुस्करा लेता हूं और
रूमाल से आंसू पोंछकर
इतरा लेता हूं।

3 . 
शरारती झोंके
मरे में दिन ढलने के बाद का अंधेरा
जाली में से रिमझिम देखते हम।
मेरी हथेली के बीच
आश्वस्त तुम्हारी हथेली!
जाली में से आती
बारीक फुहारों से
भीगते हमारे चेहरे
तुमने अपने आंचल से पोंछे और
मेरे कंधे पर टिका दिया अपना सिर।
अचानक हवा के झोंके
करने लगे शरारत
अपनी झोली में
भर-भर कर पानी
हमारी खिडकी में उढेलने लगे.....
मुझे तो अच्छा लगा
हवा का यह मासूम खेल
पर न जाने क्यों
तुमने मुझे झिडक दिया-
’चलो हटो यहां से
यहीं खडे रहे तो
और अधिक छेडेंगे
हवा के ये शरारती झोंके
और पानी की फुहारें
और तुम.....
तुम भी इनका ही साथ दोगे
मुझे सब पता है.....!'

4.   
तुम भी मुस्कराओ एक बार
चुप है धरती
मौन है आकाश
हरसिंगार फूल लुटाकर
मुस्कुरा रहा है
सिर्फ हवा
तुम्हारे चेहरे को
छू जाती है बार-बार
तुम भी मुस्कराओ एक बार।
ताकि चुप धरती,
मौन आकाश को राहत मिले कि
मैं खुश हूं और मुझे
जीवन जीने का एक
बहाना मिल गया है।
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'