गीत
इन होठों पर नाम तुम्हारा
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दहकेगा ही इस सावन में।
कितने मौसम बीते तनहा
सूनी-सूनी राहें चलते।
इन नयनों ने देखे जाने
कितने दिन उगते-ढलते।
घर लौटूं तो मिल ही जाए
शायद ख़त तेरा आंगन में।
तेरी यादों से सींचा है
मैंने अपनी मन-बगिया को।
छांव तले तुलसी चौरे की
रख दी धड़कन की डलिया को।
छिपने को आतुर हैं कितने
फूल तुम्हारे शुचि दामन में।
सच्ची लगन हृदय में हो तो
अभिलाषा होती है पूरी।
बरसों की तनहाई मिटती
कम होती जाती है दूरी।
ऐसा ही तो कुछ सीखा था
पीछे छूट चुके बचपन में।
आशा का पंछी स्पंदित
आता होगा आने वाला।
गीतों की पावन राहों में
रुनझुन राग सुनाने वाला।
मन-मूरत के आगे तब से
बैठ गया है मन पूजन में।
(चित्र-गूगल से साभार)
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
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