शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013


लघु कथा
हड़बड़ी 

पूनम पीहर आई हुई थी। उसकी नई भाभी उसके लिए चाय लेकर आई। पूनम ने देखा-भाभी को। वह जैसे आत्मविश्वास से स्वयं को भरपूर बनाए रखना चाह रही थी। लेकिन वह डगमगा ही गया। टेबिल पर ट्रे रखते समय कप से चाय छलछला ही गई। माँ ने उसे डांटा-''बहू तुमसे कोई भी काम कभी ठीक से नहीं होता। अरे यह तो पूनम थी, सोचो यदि कोई और होता तो तुम्हारे इस फूहड़पन पर न जाने क्या सोचता। क्या तुम अपने घर में भी इसी तरह काम करती थीं ? कभी माँ ने सिखाया नहीं काम का सलीका ? ऐसी भी क्या हड़बड़ी ?'' नई बहू सिर झुकाए जाने लगी।
''भाभी यहां बैठो।'' पूनम ने भाभी के हाथ पकड कर बैठा लिया। सकुची, सहमी बहू बैठ गई।
''हां बेटा पूनम और सुनो, तेरी सास तुझे तंग तो नहीं करती न ?''
''नहीं माँ, बिलकुल नहीं।''
''देखा, इसे कहते हैं संस्कार। मैंने इसे हर काम को सलीके से करने की आदत जो डलवाई थी। भाग खुल गए तेरी सास के तो, जो उसे इतनी समझदार बहू के रूप में मेरी बेटी मिली है।''
माँ ने बहू की ओर देखते हुए कहा- ''एक मैं हूं जो इसे झेलना पड़  रहा है।''
पूनम ने भाभी की ओर देखा। उसकी आँखें गीली हो आई थी। उसने भाभी के आंसुओं को गालों पर आने ही नहीं दिया। हाथ बढा कर आंसू पोंछ दिए। माँ हुअं करके रह गई।
पूनम बोली, ''हां माँ, सुनो! मेरी सास बहुत समझदार है। किस बात को कब, किस तरह कहना है, यह वो अच्छी तरह जानती है।''
''क्या मतलब ?''
''माँ, क्या आप समझती हैं कि मुझसे वहां कभी कोई गलती नहीं हुई होगी ? आपको बताऊं। जब मैं नई-नई ही थी, सासू जी की दो सहेलियां आई थीं। मैं उनके लिए ट्रे में पानी के गिलास रख कर ले गई। मुझसे भी ट्रे टेबिल पर रखते हुए एक गिलास गिर गया था। सारा पानी बह गया।''
''फिर..... तेरी सास ने तुझे डांटा तो नहीं ?'' बीती हुई बात को आज जानकर माँ घबरा गई।
''नहीं माँ, बिलकुल नहीं। उन्होंने कहा- ''बिटिया, ठीक से खाओगी-पीओगी नहीं तो हाथ से बर्तन ही छूटेंगे..... सारा वातावरण सहज हँसी से भर उठा। फिर सास ने मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरकर कहा-''बेटी, जाओ आराम कर लो। सुबह से काम कर रही हो। जबकि माँ, मैं तो सुबह देर तक सो कर उठी थी। मैं जब जाने लगी थी तो सास के ये शब्द मेरे कानों में पड़े , ''नई नई है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। नई जगह, नए लोगों के बीच एडजस्ट करने में समय तो लगता ही है। धीरे-धीरे प्यार से समझाकर पारंगत कर दूंगी।''
उसने देखा, माँ की ओर कि वो भी समझ गई थी कि सास की हड़बड़ी  ठीक नहीं है। तभी उसे प्रमाण भी मिल गया। माँ ने भाभी के सिर पर हाथ फेरा था। भाभी की आँखों से इस बार दो मोती निकल ही आए। पूनम ने इस बार उन्हें बहने दिया। हां, उसने महसूस किया कि इस बार माँ की आँखें भी गीली हो आई हैं। उसे माँ, भाभी की सास नहीं, बल्कि उनकी भी माँ ही दिखी। वह आश्वस्त हो गई।
-सुधीर सक्सेना ’सुधि'

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

सुधीर सक्सेना 'सुधि'की कविताएं


चार कविताएं 
1.
हमारे होने के ख़िलाफ़
रात होगी, उजाला दुबक जाएगा
तब हम लालटेन जलाएंगे
और कुछ देर बाद
पेड़  के नीचे, चौपाल पर बैठे
एक-दूसरे के चेहरे पढ़  रहे होंगे
हमारे हाथों में कागजी संबंध
फड़फड़ा  रहे होंगे
और छोटे बच्चे
कच्ची नींद से जाग कर देखेंगे
संभव है
हम निःशब्द हो जाएं
और तोडता चला जाए समय
हमारी प्रतिबद्धताएं
तब
सिर्फ सन्नाटा होगा
हमारे होने के ख़िलाफ़
क्या बच्चे
सुबह हमें कर देंगे माफ ?

2. 
 हर बार.....
र बार ऐसा होता है
कि मेरे भीतर की दीवार ढह
जाती है और आंगन में खिलकर झरे
फूलों की बिरादरी बह जाती है।
न वापिस दीवार चुनी जाती है,
न ही बह चुकी पंखुड़ियां
समेटी जाती हैं।
झुलसा देने वाली दोपहरी में
गुलमोहर तले मेरे भीतर का लावा
अकेले क्षणों को तोडकर
बाहर आ जाता है।
सन्नाटों को बुनने का यही तो वक्त होता है,
जब आसपास कोई नहीं होता,
तब चाह कर भी शून्य से
नहीं निकल पाना मेरी मजबूरी होती है।
बेबुनियाद अपनेपन की पीडा को
हथेली पर उतार कर मुस्करा लेता हूं और
रूमाल से आंसू पोंछकर
इतरा लेता हूं।

3 . 
शरारती झोंके
मरे में दिन ढलने के बाद का अंधेरा
जाली में से रिमझिम देखते हम।
मेरी हथेली के बीच
आश्वस्त तुम्हारी हथेली!
जाली में से आती
बारीक फुहारों से
भीगते हमारे चेहरे
तुमने अपने आंचल से पोंछे और
मेरे कंधे पर टिका दिया अपना सिर।
अचानक हवा के झोंके
करने लगे शरारत
अपनी झोली में
भर-भर कर पानी
हमारी खिडकी में उढेलने लगे.....
मुझे तो अच्छा लगा
हवा का यह मासूम खेल
पर न जाने क्यों
तुमने मुझे झिडक दिया-
’चलो हटो यहां से
यहीं खडे रहे तो
और अधिक छेडेंगे
हवा के ये शरारती झोंके
और पानी की फुहारें
और तुम.....
तुम भी इनका ही साथ दोगे
मुझे सब पता है.....!'

4.   
तुम भी मुस्कराओ एक बार
चुप है धरती
मौन है आकाश
हरसिंगार फूल लुटाकर
मुस्कुरा रहा है
सिर्फ हवा
तुम्हारे चेहरे को
छू जाती है बार-बार
तुम भी मुस्कराओ एक बार।
ताकि चुप धरती,
मौन आकाश को राहत मिले कि
मैं खुश हूं और मुझे
जीवन जीने का एक
बहाना मिल गया है।
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

बहुमुखी प्रतिभा के धनी: मंगल सक्सेना
सृजन-दृष्टि-
'साहित्य-सृजन मे मैं अपने अनुभव को अभिव्यक्त करने की उद्दाम प्रेरणा को ही सृजन का आधार मानता हूं। मैं उन्हीं रचनाओं को रचता हूं जो मानवता को गरिमा देने वाली हों।'
                                                                                    -मंगल सक्सेना

मंगल सक्सेना

भारतीय संस्कृति की समग्र चेतना के संवाहक 76 वर्षीय मंगल सक्सेना बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। मूलत: कवि, अंशत: पत्रकार, अधिकांशत: नाट्यकर्मी और सम्पूर्णत: सृजनात्मक चेतना के प्रतिष्ठापक मंगल सक्सेना के दो काव्य-संग्रह 'मैं तुम्हारा स्वर' और 'कपट का सीना फाड़ो' (अकिंचन शर्मा के साथ)प्रकाशित हैं। दो दर्जन से अधिक नाटक निर्देशित किए हैं, इतने ही नाटक लिखे भी हैं। तीस से अधिक नाट्य शिविरों का आयोजन करके लगभग ढाई हजार से लड़के-लड़कियों को प्रशिक्षण दिया है। सक्सेना राजस्थान साहित्य अकादमी के सचिव (1964-67) और राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष (1984-87) भी रहे हैं। साहित्य अकादमी ने आपको 'विशिष्ट साहित्यकार' (1984-85) के रूप में सम्मानित किया, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर ने 'साहित्य श्री निधि' का सम्मान दिया तथा आपको उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र पटियाला और उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र इलाहाबाद की संचालिका में भी सदस्य मनोनीत किया गया। अंतरप्रांतीय  साहित्यकार बंधुत्व कार्यक्रम योजना के अन्तर्गत राजस्थान-गुजरात बंधुत्व सम्मेलन में दो बार प्रतिनिधित्व भी किया।
मंगलजी का जन्म (14 मई, 1936) बीकानेर में हुआ और इण्टर तक की शिक्षा भी वहीं पूरी की। दस वर्ष की आयु में उनकी पहली कविता शिशु पत्रिका में प्रकाशित हुई। चौथी कक्षा तक आते-आते काव्य रचना और नाटकों में अभिनय करने लगे। बाद में छात्र राजनीति में सक्रिय हुए। एक गीत नाटिका लिखी, छात्रसंघ की संगीत नाटक समिति के अध्यक्ष बने। यूथ फेस्टीवल उदयपुर में कालेज की तरफ से नाट्य प्रतिनिधित्व मिला। 'साहित्यिक' संस्था का गठन किया। श्री हरीश भादाणी, ओंकार श्री, व श्री यादवेन्द्र शर्मा 'चन्द्र' जैसे साहित्यकारों के साथ दैनिक विचार मंथन, गोष्ठियों व सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी अग्रणी सहभागिता रखी। इस समय तक वे उद्बोधन, आह्वान और क्रांति चेतना वाली कविताएं रचते रहे तथा लोहियावादी समाजवाद से प्रभावित रहे। इसी दौरान 'पराग' रंगमंचीय बाल नाटक प्रतियोगिता में आपके नाटक 'चंदामामा की जय' को प्रथम पुरस्कार मिला। फिर एक और बाल नाटक 'आदत सुधार दवाखाना' भी प्रकाशित हुआ। आगे चलकर बाल नाटक विधा में ही वे अधिक यशस्वी हुए।
सन् 1957 में मंगलजी अजमेर आ गए। यहीं राजकीय महाविद्यालय में पढ़ते हुए बी.ए. की डिग्री प्राप्त की और दयानन्द महाविद्यालय से समाजशास्त्र में एम.ए. किया। राजकीय महाविद्यालय में दो वर्ष तक सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार लिया। साथ ही 'न्याय' अखबार में स्तम्भ लेखन व खोजी पत्रकारिता विधा में उल्लेखनीय कार्य किया। सन् 1962 में तत्कालीन जिलाधीश श्री टी.एन. चतुर्वेदी और पुलिस अधीक्षक श्री पिलानिया के साथ नगर में घूम-घूम कर ओजस्वी काव्य-पाठ करते हुए सैनिकों की सहायतार्थ कोष एकत्र कराया। उसी दौरान मंगल सक्सेना व अकिंचन शर्मा का कविता संग्रह कपट का सीना फाड़ो पश्चिमी रेलवे ने प्रकाशित किया तथा उसकी बिक्री से सैनिक सहायता राशि भेजी। इस समय तक मंगलजी की छवि ओजस्वी कवि, प्रखर पत्रकार और राष्ट्रीय चेतना के कर्मठ संवाहक के रूप में स्थापित हो चुकी थी।
सन् 1964 में उन्हें राजस्थान साहित्य अकादमी का सचिव नियुक्त किया गया। उक्त पद पर रहते हुए नवोदित साहित्यकारों की 39 पुस्तकें प्रकाशित की। अकादमी की त्रैमासिक पत्रिका 'मधुमती' को मासिक किया। सन् 1967 में उन्होंने यह पद छोड़ दिया। इसके बाद 28 फरवरी, 1968 में उन्होंने उदयपुर में प्रयोगधर्मी चित्रकारों की संस्था 'टखमण-28' गठित की। तीन वर्ष तक इसका संयोजन- संवर्धन किया और फिर स्वयं को इससे मुक्त कर लिया। यह संस्था आज भी सक्रिय है और इसके अनेक चित्रकार राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित हुए हैं। बात वही कि सृजन चेतना चाहे कवि की हो अथवा नाटककार की-मंगलजी ने उसे ऊर्ध्वगामी बनाने में भरसक मदद की।
1973 में मंगल सक्सेना ने राजस्थान में नाट्य आंदोलन का प्रारंभ किया। अन्तर्मन में बीजांकुरित जो नाट्यकर्मी अंशत: सक्रिय था वह अनायास ही सम्पूर्ण क्षमता के साथ आगे बढ़ा। इसके तहत उन्होंने उदयपुर में 'त्रिवेणी' और बीकानेर में 'संकल्प' संस्था का गठन किया। उदयपुर, अजमेर, बीकानेर, बाड़मेर व सीकर आदि अनेक शहरों में  उन्होंने नाट्य शिविरों का आयोजन करके अनेक नई प्रतिभाओं को प्रशिक्षित किया। 1983 में नाट्य रचना वक्त गुजरात, गोवा, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश व दिल्ली में नाट्य कार्यशालाओं, प्रशिक्षण-शिविरों व गोष्ठियों में अपना महत्त्वपूर्ण रचनात्मक सहयोग दिया है।
मंगलजी ने शिक्षा जगत् में भारतीय संस्कृति की व्यापकता के परिप्रेक्ष्य की दृष्टि से शिक्षकों को नाटक की शास्त्रीयता व आधुनिकता से परिचय कराने हेतु अनेक व्याख्यान दिए हैं। सन् 1984 से 1987 तक वे राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, जोधपुर के अध्यक्ष रहे।
आपकी कुछ अन्य गतिविधियां-पश्चिमी क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, उदयपुर की स्थापना में योगदान, पणजी में नाट्य शिविर का निर्देशन, केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी की तरफ से लखनऊ, नागौर, भोपाल व दिल्ली में नाट्य विशेषज्ञ की हैसियत से भागीदारी व भारत भवन में नाट्य स्कूल-पाठ्यक्रम पर आयोजित सेमिनार का प्रवर्तन आदि है।
मृदुभाषी, दार्शनिक व्यक्तित्व के धनी इस विख्यात रंगचेता को राजस्थान साहित्य अकादमी, नगर परिषद् अजमेर, जिला प्रशासन, बाड़मेर सहित अनेकानेक संस्थाओं ने सम्मानित व पुरस्कृत किया है। इनके अलावा कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण सम्मान-
राजस्थान संगीत नाटक अकादमी द्वारा नाट्य निर्देशन के लिए 'अकादमी अवार्ड'(2001-2002)
राजस्थान विद्यापीठ उदयपुर द्वारा 'साहित्यश्री निधि' के सम्मान-सम्बोधन से समादृत।
बाल कल्याण परिषद् कानपुर द्वारा बाल साहित्य विधा में उल्लेखनीय योगदान के लिए सम्मानित।
राजस्थान पत्रिका सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार से सम्मानित (कविता प्यार का रिश्ता-राजस्थान पत्रिका के रविवारीय परिशिष्ट 8 मई, 2005 में प्रकाशित)।
भारतीय लोक कला मंडल, उदयपुर ने अपना मानद आजीवन सदस्य के रूप में चुनाव किया।
कुमार संभव और दुर्गा सप्तशती पर आधारित नृत्य-नाटिकाओं का लेखन, जिनका विभिन्न मंचों पर प्रदर्शन हुआ।
अन्य
दो कविता संग्रह, दो बाल उपन्यास के अलावा लगभग तीस अन्य पुस्तकों का प्रकाशन, राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित काव्य-संकलन, कथा-संकलन व गद्यगीत संकलनों में इनकी रचनाएं सम्मिलित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अनेक रचनाएं प्रकाशित। आकाशवाणी के अजमेर, जयपुर, बीकानेर, उदयपुर सहित अन्य प्रसारण केन्द्रों से रचनाएं प्रसारित।
आकाशवाणी द्वारा सर्वभाषा कवि सम्मेलन में डोगरी व कन्नड़ कविताओं का अनुवाद।
राजस्थान साहित्य अकादमी ने प्रथम फैलोशिप प्रदान की और विशिष्ट साहित्यकार के रूप में सम्मानित किया।

शनिवार, 20 जुलाई 2013

चित्र: गूगल से साभार
लघु कथा
लघु कथा की कथा
उस दिन मैं एक साहित्यिक पत्रिका का लघुकथा अंक पढ़ रहा था। सभी लघुकथाएं अच्छी थीं। लेकिन एक लघुकथा पढ़कर मन भर आया। लघुकथा एक बूढ़े साइकिल-रिक्शा वाले से संबंधित थी। तभी मेरी आंखों के सामने एक घटना घूम गई। बिलकुल इसी तरह की एक घटना का तो मैं भी गवाह हूं।
बरसों पहले एक लेखक मित्र किसी सरकारी काम से मेरे शहर आए थे। काम निपटाकर शाम को वे मेरे घर आने वाले थे, ऐसा उन्होंने मुझे पूर्व में पत्र से सूचित किया था। दफ्तर से आने के बाद मैं उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था।
तभी मेरे घर के बाहर से आ रही तेज़ आवाज़ों ने मेरा ध्यान खींचा। मैं बाहर की ओर लपका। देखा, मेरे लेखक मित्र एक बूढ़े साइकिल-रिक्शा वाले से बहस कर रहे हैं। मुझे देख कर तो वे और भी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे। मैंने उनके हाथ जोड़े 'भाई, मेरे अड़ोस-पड़ोस का तो खयाल करो।' वे चुप तो हो गए; किंतु उत्तेजित अवस्था में ही खड़े रहे। साइकिल-रिक्शा वाले का कहना था कि वह सचिवालय से इतनी दूर लाया है, इसलिए उसे बीस रुपए ही दिए जाएं। लेकिन मेरे मित्र का कहना था कि यह बिलकुल गलत बात है। साइकिल-रिक्शा वाले से तो पांच रुपए में आना तय हुआ था।
माजरा कुछ समझ में नहीं आया। मैंने उस बूढ़े साइकिल-रिक्शा चालक से कहा- 'बाबा, आपका नुकसान नहीं होगा, आप पहले पूरी बात तो बताओ।' पसीने से लथपथ  दुबली-सी काया वाले उस साइकिल-रिक्शा चालक ने बताया कि ये, सचिवालय के नज़दीक जो तिलक मार्ग है, वहां जाने के लिए मेरे रिक्शा में बैठे थे। मैंने इनसे आठ रुपए मांगे। लेकिन ये पांच रुपए ही देना चाहते थे। मैं मान गया। वहां ये बाबूजी आपका घर ढूंढ़ रहे थे। आपका मकान नंबर वहां नहीं मिल रहा था। मैंने एक बार कहा भी था कि बाबूजी, पता तो आपको ठीक से मालूम है न?
हां-हां, मालूम है, सी-12, तिलक नगर।
मैंने रिक्शा रोक दिया। कहा- 'तिलक नगर! वह तो यहां से काफी दूर है। आपने मुझे तिलक मार्ग क्यों बताया?' ये बोले, मुंह से निकल गया। कोई बात नहीं, वहीं चलो भाई। मैं इन्हें यहां ले आया। मेरी गलती सिर्फ इतनी-सी है कि मैंने इनसे वहीं तय नहीं किया कि अब भाड़ा पांच रुपए नहीं, बीस रुपए लगेगा। अब, जब मैं इनसे बीस रुपए मांग रहा हूं, तो ये सिर्फ पांच रुपए ही टिकाना चाहते हैं। चलो, दो रुपए कम दे दो, अट्ठारह दे दो लेकिन मेरे बुढ़ापे के पसीने का तो खयाल करो।
मुझे सारी बात समझ में आ गई थी। मैंने साइकिल-रिक्शा वाले का ही पक्ष लिया और उसे बीस रुपए देने लगा। मित्र को  यह अच्छा नहीं लगा, सो उन्होंने बे-मन से अपनी जेब से बीस रुपए निकाल कर उसे दे दिए। साइकिल-रिक्शा वाला चला गया। मित्र रिक्शा वाले के साथ-साथ मुझ पर भी बड़बड़ाते हुए भीतर आ गए।
मैंने कहा- 'आप गरीबों की समस्याओं  पर लेखन करते हैं, और आपने ही एक गरीब साइकिल-रिक्शा वाले का दिल दु:खा दिया?'
वे बोले, 'अरे छोड़ो भी लूट मचा रखी है लूट! पैसे क्या पेड़ पर उगते हैं?'
मैं चुप ही रहा। फिर बात आई-गई हो गई। दूसरे दिन वे चले गए।
वाकई, यह लघु-कथा तो बहुत ही मार्मिक है। उत्सुकतावश मैंने लघुकथाकार का नाम पढ़ा तो लगा-स्वाद कसैला हो गया है! लघु कथा के नीचे उन्हीं मित्र का नाम छपा था!!

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
मो. 09413418701
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

सोमवार, 1 जुलाई 2013


रमी की छुट्टियों में शालू और संगीत दादाजी के गाँव आए थे। छुट्टियां कैसे पँख लगाकर उड़ गईं, पता ही नहीं चला। पापा भी उन्हें लेने आ ही गए। दादा-दादी से विदा लेकर वे स्टेशन आ गए थे। वे जैसे ही स्टेशन पहुंचे वहाँ कई बच्चों के हाथों में फूलमालाएं देखकर पापा सोचने लगे, शायद कोई नेता आने वाला हो। लेकिन उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि बच्चे तो शालू और संगीत को मालाएं पहना रहे हैं। वे प्रसन्न भाव से अपने बच्चों से गाँव के बच्चों की आत्मीयता देख रहे थे। सोच रहे थे कमाल है,पूरे गाँव के बच्चों से दोस्ती!
'नमस्कार साहब।' एक आवाज से पापा चौंके। उन्होंने देखा, कुरता पायजामा पहने और कंधे पर झोला लटकाए एक व्यक्ति उनसे ही नमस्कार कर रहा था।
'आप शालू और संगीत के पिता हैं?'
'ज ....जी हाँ, आप?'
'जी मेरा नाम मनोहर है। मैं पर्यावरण चेतना के लिए गाँव के बच्चों को जागरूक करने का काम करता हूँ।' उन्होंने बताया-'आपके दोनों बच्चों ने इस काम में मेरी बहुत मदद की है। इन्हीं के कारण मैं गाँव के बच्चों को पर्यावरण के बारे में बहुत कुछ बता सका हूँ। कुछ ही दिन में आपके बच्चे पूरे गाँव के बच्चों के चहेते बन गए हैं।'
तभी इंजन ने सीटी दी। शालू और संगीत पापा के पास आ गए। मनोहरजी को देखकर उन्होंने आदर से सिर झुकाकर प्रणाम किया। 'खुश रहो बच्चों' कहते हुए उन्होंने दोनों के सिर पर स्नेह से हाथ फेरा और बोले-'हम सभी तुम्हें याद रखेंगे...आशा करते हैं कि फिर जल्दी ही तुम दोनों गाँव आओगे।'
दोनों पापा के साथ गाड़ी में चढ़ गए। गाड़ी धीरे-धीरे प्लेटफार्म छोडऩे लगी। खिड़की से दोनों हाथ हिला रहे थे और जवाब में अनेक नन्हे-नन्हे प्रकृति प्रेमी हाथ हिल रहे थे। और चिल्ला रहे थे-'फिर आना गाँव हमारे।'
पापा ने पूछा, 'भई, यह सब क्या था?'
'पापा, एक दिन हम गाँव की चौपाल में गए थे, जहाँ मनोहर सर पर्यावरण चेतना के बारे में बच्चों को जानकारी देते थे। हमें वहाँ जाना अच्छा लगा सो रोज ही जाने लगे।' संगीत बोला।
तभी शालू चहकी-'पापा,सचमुच बहुत मजा आता था। एक दिन उन्होंने बताया कि प्रकृति को प्रतिकूल बनाकर नहीं रहा जा सकता। इसकी शिक्षा हर बच्चे को मिलनी चाहिए। उनके  कहे अनुसार ही हमने गाँव में सूर्योदय से पहले उठने की आदत डाल ली। सूर्य नमस्कार करना भी उन्हीं से सीखा, प्रात:कालीन सैर, दादाजी के घर के आसपास के खाली स्थानों पर पौधे लगाने का काम भी किया। बच्चों को साफ-सफाई से रहने के लाभ भी बताए।'
'हमें खुशी है कि मनोहर सर के मार्गदर्शन में हम गाँव के बच्चों में बहुत कुछ बदलाव कर सके। संगीत ने कहा। एक पल रुक कर फिर बोला-'पापा, वहाँ हमने देखा कि अनेक घर ऐसे थे जहाँ गंदा पानी वहीं इकट्ठा  हो रहा था। सर के साथ हम दोनों ने भी उन घरों के बच्चों को समझाया कि घर के बाहर गंदा पानी जमा नहीं होने देना चाहिए। इससे मक्खी-मच्छर पनपते हैं, बीमारियां फैलती हैं। कई बच्चे तो ऐसे भी थे जो कई-कई दिन नहाते ही नहीं थे। उन्हें भी हमने शरीर की नित्य सफाई के बारे में बताया।'
पापा बहुत ध्यान से, और गर्व से अपने बच्चों की बातें सुन रहे थे।
'पापा, एक दिन सर ने गाँव के बच्चों को आसपास के वृक्षों, फूलों, पशु-पक्षियों, नदी-तालाब के बारे में भी बताया कि इन्हें मामूली नहीं समझना चाहिए। ये सभी प्रकृति की संतानें हैं, इसलिए इन्हें बनाए रखने में अपना पूरा योगदान देना चाहिए।' संगीत बोला। 
'भैया, सर ने यह भी तो बताया था कि प्रकृति मनुष्य की हर आवश्यकता को पूरा करती है, इसलिए हम सभी की भी जिम्मेदारी है कि हम प्रकृति की रक्षा के लिए अपनी ओर से भी कुछ न कुछ प्रयास करते रहें।' शालू ने जैसे याद दिलाते हुए कहा।
'हाँ पापा, पहली बार, इन छुट्टियों में हमने प्रकृति को बहुत नजदीक से देखा, समझा और जाना कि प्रकृति से खिलवाड़ करेंगे तो वह हमारे लिए ही नुकसानदायक होगा।'
पापा बोले-'यह तो बहुत ही अच्छी बात है। अच्छा यह बताओ कि घर लौटकर भी प्रकृति प्रेम बनाए रखोगे या फिर भूल जाओगे?'
'बिलकुल नहीं पापा, बल्कि स्कूल में अन्य साथियों को भी यह सब बताएंगे और कहेंगे कि प्रकृति को प्रतिकूल बनाकर नहीं रहा जा सकता।' शालू और संगीत दोनों एक साथ बोले।
'पापा, अब हम अगली छुट्टियों में फिर से गाँव जाएंगे।' शालू बोली।
'हाँ, बेटा, जरूर जाना।' पापा ने कहा। अपने बच्चों का यह प्रकृति प्रेम देखकर वे बहुत खुश थे कि बच्चों का गाँव आना सार्थक रहा।
गाड़ी तेज गति से दौड़ रही थी।

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ
मानसरोवर, जयपुर-302020
मो. 09413418701
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

शनिवार, 15 जून 2013

सुधीर सक्सेना 'सुधि' की बाल कहानी

कौन जीता, कौन हारा

चुकलू खरगोश स्कूल से घर लौट रहा था। वह आज अकेला ही था। हमेशा की तरह उसके पड़ोस में रहने वाला उछलू मेढक तबीयत ठीक नहीं होने से आज स्कूल नहीं गया था।
मास्टरजी ने जो पाठ पढ़ाया था, चुकलू उसके बारे में सोच रहा था। 'कछुआ और खरगोश' का पाठ। लेकिन यह बात उसकी समझ में नहीं आई कि धीरे-धीरे चलने वाला कछुआ तेज दौडऩे वाले खरगोश से आखिर हार कैसे गया?
चुकलू  को तब बड़ी शरम महसूस हुई थी, जब अन्य साथियों ने उसकी हंसी उड़ाई थी कि बड़ा आया तेज दौडऩे वाला.....एक कछुए से हार गया!
कक्षा में सबसे पीछे बैठने वाला धीमू कछुआ भी ही-ही करता हंस रहा था।
'तुम्हें तो मैं स्कूल की छुट्टी के बाद देखूंगा।' चुकलू खरगोश बुदबुदाया था।
स्कूल की छुट्टी के बाद रास्ते में चुकलू खरगोश एक झाड़ी में छिपकर बैठ गया। धीमू कछुआ धीरे-धीरे आ रहा था। जैसे ही वह समीप आया, चुकलू उछलकर उसके सामने आ गया।
'अब बोल बच्चू! क्यों हंस रहा था मुझ पर?'
धीमू कछुआ नम्रता से बोला- 'चुकलू, मैं तुम पर नहीं, कहानी सुन कर हंसा था।'
'नहीं, तुम मुझे देख कर हंसे थे। मैं भी खरगोश हूं।' कहते हुए चुकलू ने एक पंजा कछुए की पीठ पर मारा।
कछुए के तो कुछ असर नहीं हुआ लेकिन चुकलू के पंजे में दर्द होने लगा। वह पीछे हट गया। जाते-जाते बोला-'कोई बात नहीं, कल बताऊंगा तुझे। मेरा दोस्त उछलू आज मेरे साथ नहीं है।'
अगले दिन सुबह स्कूल जाते समय चुकलू ने उछलू मेढक को सारी बात बताई।
उछलू खूब जोर से उछलने लगा। 'उसकी इतनी हिम्मत कि वह तुम्हें देख कर हंसे! मैं उसका हंसना भुला दूंगा।'
आज मास्टरजी ने एक कविता सुनाई-'बरसाती मेढक'। आज भी बड़ा मजा आया। चुकलू  तो ठहाका मारते हंस पड़ा। उछलू ने देखा तो उसे गुस्सा आ गया। बोला- 'चुकलू , तू तो मेरा दोस्त है। फिर भी हंस रहा है?'
'हां, हंस रहा हूं बरसाती मेढक।' कहता हुआ चुकलू और जोर से हंसा-ही...ही...ही...। उछलू मेढक ने धीमू कछुए की ओर देखा। बोला-'देख, धीमू  तो नहीं हंसा। लेकिन तू हंसा। छुट्टी के बाद मैं तुझे बताऊंगा। तेरा हंसना भुला दूंगा।'
'अरे जा-जा। बड़ा आया, बताने वाला।' चुकलू ने उसकी खिल्ली उड़ाई।
स्कूल से बाहर आकर खरगोश ने कहा- 'तू क्या बताएगा! ले, मैं बताता हूं, तुझे।' कहते हुए उसने एक पंजा उछलू के मारा। उछलू सावधान था, फौरन उछला लेकिन खरगोश की पीठ पर पर जा गिरा।
चुकलू खरगोश धम् से वहीं बैठ गया। उछलू तो अपने घर चला गया।
पीछे-पीछे धीमू कछुआ आ रहा था। उसने रुक कर पूछा-'क्या हुआ चुकलू ?'
'कुछ नहीं।'
'मैंने देखा है सब कुछ। उछलू तुम्हारी पीठ पर कूदा था, इससे दर्द हो रहा है न।' चुकलू चुप।
'चलो, मेरी पीठ पर बैठ जाओ।'
दर्द के मारे, कराहता हुआ चुकलू, धीमू की पीठ पर बैठ गया।
रास्ते में धीमू  बोला-'जब उछलू तुम्हारी पीठ पर कूदा था, वह दृश्य वाकई हंसाने वाला था। मैं भी हंसा था लेकिन धीरे से।'
चुकलू चुप था। कछुआ बोला- 'लेकिन यह हंसी स्वाभाविक थी। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम्हारी किसी कमजोरी पर हंस कर मजाक बनाया। दोस्त, एक सुझाव है, तुम्हारे लिए कि सहज रहना सीखो। आज के इस तनाव भरे युग में छोटी-छोटी बातों से परेशान होओगे तो कैसे काम चलेगा? अपना खून जलाने से कोई फायदा नहीं। और सुनो, कौन जीता, कौन हारा, यह सब भी बेकार की बातें हैं।'
'हां, धीमू, तुम ठीक कहते हो। मैं समझ गया।' चुकलू बोला।
चुकलू खरगोश का घर आ गया था। कछुए को धन्यवाद देता हुआ वह उसकी पीठ से उतर गया।
चुकलू खरगोश सोच रहा था- 'हार तो मैं आज भी गया हूं कछुए से। आज उसकी मदद, उसकी विनम्रता ने मुझे हरा दिया  है।'


-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
मो. 09413418701
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

मंगलवार, 11 जून 2013

सुधीर सक्सेना 'सुधि' की बाल कहानी

गलती से मिली खुशी

राजू देखने में जितना भोला लगता था, उतना ही शरारती भी था। उसे केवल इस बात में मजा आता था कि  वह दूसरों को  परेशान करे, उन्हें सताए। वह अपनी छोटी बहिन रश्मि की आते-जाते चोटी खींच देता, कभी उसके  खिलौने तोड़ देता। कालोनी के अन्य बच्चों के  साथ खेल ही खेल में किसी बच्चे को  धक्का दे देता। वह गिर जाता तो राजू हंसने लगता। स्कूल में भी पढ़ाई की बजाय शरारत ही अधिक करता। मौका  पाकर किसी
के बस्ते से कापी, पेंसिल, रबर आदि निकाल कर दूसरे बच्चे के बस्ते में डाल देता। खोजने पर जब दूसरे के बस्ते से कापी या पेंसिल,रबर आदि निकलता तो अध्यापक उस बच्चे को  डांटते। राजू खिलखिलाकर  हंस पड़ता। कभी वह अपने मम्मी-पापा के साथ किसी रिश्तेदार अथवा किसी परिचित के घर जाता तो वहां भी कोई न कोई शरारत करने से नहीं चूकता। उसके मम्मी-पापा को शर्मिंदा होना पड़ता। कई बार तो वे उसे
अपने साथ ही नहीं ले जाते थे।
ऐसा नहीं था कि उसे शरारत के कारण डांट-फटकार नहीं पड़ती हो,लेकिन उस पर असर ही नहीं होता था। मम्मी-पापा दोनों ही चिंतित थे। उन्हें कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। डांट-फटकार,पिटाई का भी उस पर कोई  असर नहीं होता था। प्यार से तो वह समझता ही नहीं था।
उस दिन शाम को  वह खेल कर  घर लौट रहा था। उसे सड़क के उस पार जाना था। लेकिन वाहनों का  रेला था कि खत्म ही नहीं हो रहा था। वह सड़क के खाली होने की  प्रतीक्षा करने लगा। तभी उसकी नज़र एक बुजुर्ग व्यक्ति पर गई। वह भी शायद सड़क के उस पार जाना चाहते थे।
राजू के दिमाग में एक शरारत भरा विचार भी आ रहा था। उन बुजुर्ग के सहारे वह भी सड़क पार कर  लेगा और फिर उनकी  छड़ी छीनकर दूर फेंक देगा। बहुत मजा आएगा। वह मन ही मन हंस पड़ा। वह उन बुजुर्ग के  पास आया और उनकी छड़ी पकड़ कर बोला-‘दादाजी,चलिए। मैं आपको सड़क पार करवा दूं।’ बुजुर्ग व्यक्ति खुश हो गए। उन्हें सड़क  पार करते देखकर वाहन चालकों ने अपने वाहन धीमे कर लिए थे। वह उनकी छड़ी पकड़ कर
सड़क के उस पार ले आया। ‘अब इनकी छड़ी खींच लेता हूं,मैंने हाथ में तो पकड़ ही रखी है।’उसने सोचा। वह शरारत करने ही वाला था कि तभी एक स्कूटर उनके पास रुका। वे बुजुर्ग बोले-‘मेरा बेटा आ गया।’ राजू ने देखा-पापा की उम्र का एक व्यक्ति स्कूटर पर सवार था। राजू कुछ कर न सका। वे बुजुर्ग बोले-‘बेटा, इस बच्चे ने मुझे सड़क  पार करवाई है।’ फिर उन्होंने राजू के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए
आशीर्वाद दिया-'तुम बहुत अच्छे बच्चे हो! ईश्वर हमेशा तुम्हें सुखी रखे।’उनके बेटे ने भी उसे थैंक्स कहा।
फिर बुजुर्ग अपने बेटे के  साथ स्कूटर पर बैठकर चले गए।
‘ओह, इनके  बेटे को  भी अभी ही आना था। शरारत का मौका हाथ से निकल गया।’ वह बुदबुदाया। लेकिन मेरे मन में खुशी-सी क्यों है? वाकई,राजू के मन में तो एक अजीब-सी उमंग थी। उसने खुशी-खुशी घर की ओर दौड़  लगाई। आज तो जैसे उसके पाँव जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। मम्मी-पापा और उसकी  छोटी बहिन बाहर लॉन में बैठे थे। मम्मी ने पूछा-‘आज इतना खुश-खुश क्यों लग रहे हो?’
तभी पापा बोले-‘फिर कोई शरारत करके आया होगा। देखना अभी कोई न कोई इसकी शिकायत लेकर आता ही होगा।’
‘नहीं पापा, आज ऐसा नहीं होगा।’ राजू बोला। पापा ने चकित भाव से उसकी ओर देखा।
‘मैं सच कह  रहा हूं।’ राजू ने सारी बात बताई, फिर बोला-‘पापा,मैं तो शरारत के मूड में ही था। यह तो गलती से ही एक अच्छा काम मुझसे हो गया। शायद इसी की खुशी मुझे हुई हो।’
मम्मी ने कहा-‘बेटा, शायद नहीं, यही वास्तविकता है। इसमें उन बुजुर्ग के हृदय से निकला ईश्वर का आशीर्वाद भी शामिल है जो उनके माध्यम से तुम्हें  मिला है। जब इस छोटे-से नेक काम से तुम्हारा मन इतना खुश हुआ तो सोचो, हमेशा ही अच्छे काम,दूसरों की मदद करने से कितनी खुशी मिलती होगी।’ एक  पल रुक कर मम्मी फिर बोलीं-‘बेटा, बड़े-बुजुर्ग तो यही सिखाते आए हैं कि भले ही किसी के सुख में साथी न
बनो लेकिन दु:ख में ज़रूर बनो। इससे मन को बहुत संतुष्टि मिलती है। यही नहीं,जब हम भी कभी किसी कारण से दु:खी होते हैं तो ईश्वर भी अच्छे लोगों के माध्यम से हमारा दु:ख, हमारी परेशानी दूर करवाता है, हमारी मदद भी करवाता है। लेकिन  तुम तो हमेशा ही केवल अपने मनोरंजन के लिए किसी को भी दु:खी कर देते हो।’किसी को भी परेशानी में डाल देते हो। कभी सोचा है कि जिन्हें तुम सताते हो,जिनका उपहास
करते हो,जिनके लिए मुसीबत खड़ी कर देते हो,उन्हें कितना दु:ख पहुंचता होगा।’
राजू चुपचाप सिर नीचा किए सुन रहा था। पापा ने कहा-‘बेटा, जो व्यक्ति अच्छा काम करता है, उसकी  अनुभूति और भी अच्छे काम करने की ओर प्रेरित करती है। हमें उम्मीद है,तुम आगे भी अच्छे और नेक काम ही करोगे।’
आज पहली बार राजू की आंखों से आंसू टपके। मम्मी-पापा और रश्मि ने ही नहीं,स्वयं राजू ने भी महसूस किया  कि यह पश्चाताप के आंसू हैं,जिनसे सारी शरारतें बह गई हैं।
मम्मी-पापा ने उसे गले लगा लिया। रश्मि भी उससे लिपट गई। राजू के  दिमाग में बुजुर्ग के कहे शब्द ‘तुम बहुत अच्छे बच्चे हो! ईश्वर हमेशा तुम्हें  सुखी रखे।’ घूमने लगे। उसने दृढ़ निश्चय किया कि  वह ‘बहुत अच्छा बच्चा’ बनकर ही रहेगा। उसे ईश्वर के आशीर्वाद की अनुभूति अभी तक भी हो रही थी।

- सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
मोबाइल: 09413418701
e-mail:sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

मंगल सक्सेना की कविता

हम राजर्षियों के वंशज

राजर्षियों ने तप किया था
सत्य शोधा था
हमारे लिए
हम उपकृत हैं
कभी, जब उन्हें
नसों में महकता महुआ
चिटखता गुलाब,
अँगड़ाती रातरानी का जादुई सैलाब
जगाता था,
अपना फर्ज़  निभाता था
तो अपने ध्यान से विगलित
उनकी चेतना में समाया
चिन्तकों की ऊँची जमातवाला क्रोध
उफ़न आता था,
यह हमारी समझ में आता है
कि जीवन का एक भाग
क्यों काट दिया जाता था !

राजगुरुओं ने सत्य जाना था
यह अतल सौर-मण्डल
उनका कितना पहचाना था !
किन्तु अपने नेत्रों से जिन्हें पोसा था !
उन ज्योतिकणों की नियति के अंधकार से घबराकर
जब उन्होंने आँखें मूंद ली थीं-
उस अन्तराल से भयभीत होकर
उन्होंने हमारे युग को कोसा था
सत्य की शोध,
उनका तप,
उनका ज्ञान,
वहीं रुक गए थे
हमें केवल निरर्थकता, अनिश्चय
विरासत में देने के लिए
वासना विहीन अंगारे की तरह चुक गए थे !
लेकिन उस अन्तराल को हमने पार किया है
अँधेरे को भी प्यार दिया है
हमने विष जिया है।
महज़ उस भूल को सुधारने के लिए
जो हमारे बुज़ुर्गों ने की थी
जो काल हमारे भविष्यत का सुन्दर आँगन होता
हमने धुँआले गलियारे की तरह पाया
अपना नर्म पँखों-सा विश्वास खोया
अँधेरे में झपटते हिंसक पंजों में
हमने संवेदनाओं के सुकुमार खगकुल को भी लुटाया
मगर फिर भी
अपनी ज्ञान-पिपासु
स्वाधीन शावक-मृगी-आत्मा को
यहाँ तक, उजाले तक पहुँचाया !
और यह भूल
जिसे जानबूझकर करना
हमारे व्यवस्थापकों-शासक-पिताओ ! तुम्हारे लिए
स्वाभाविक था
अब हमारे लिए सम्भव नहीं है !
तुमने सत्य पाया
किन्तु कृपणता से बाँटा
एक इन्सान को वर्गों में काटा, वर्णों में छाँटा
इन्सानियत को अपनी पूँजी बनाया
ओ हमारे ज्ञानी पिताओ !
सत्य देने का मोल
तुमने कितना महँगा लगाया?

अब वही युग हमारे शीश पर
शिव के चन्द्र की तरह सुशोभित है
जिसे तुमने कलंकित कहा था
जिसने हमें विराट करुणा और सौहार्द का
शारदीय क्षीर-पात्र दिया है,
वही युग
हमारी तपस्या के द्वारा
अतीत के दाग़  से
उन्मोचित है !
हमारी तपस्या
हमारे रक्त की मेघमयी ऊष्मा से खण्डित नहीं होती !
हमारी तपस्या
अप्सराएं भंग नहीं करतीं !
क्योंकि ओ वीतरागी पिताओ !
हम जीवन के प्रति कृपण नहीं हैं !!
हमारे युग में
वे अप्सराएं सरस उद्यान की
समान स्वाधीन, सत्यार्थिनी
पुष्पिता सूर्यमुखी चेतनाएँ हैं !
उन्हें अपने तप भंग की
उतनी ही चिन्ता है, जितनी हमें !
वाष्पीय सांसों से
संस्पर्श से बचने की
उनमें भी उतनी ही आतुरता है
जितनी तुम्हारे युग में
पवित्र जिज्ञासा सहने की तपश्चर्या
तोड़ डालने की बेकली
देवताओं के महाराजा इन्द्र को रहती थी !
और आज इन्द्र औंधे मुँह
अपने सिंहासन से नीचे पड़ा है
क्योंकि
अप्सराएं हमारी बन्धु हैं
किसी निरंकुश की विलास प्रियाएं नहीं !!
आज हम धरती के नर-नारी
बन्धुत्व की अगाध शक्तियाँ लेकर
अपनी चेतना के विस्तार में
समस्त सौर मण्डल समोये
सम्पूर्ण सत्य पाने को लालायित
तप:लीन, पर्युत्सक,
अपनी सन्तानों के माध्यम बने
भविष्यत को केवल एक परम्परा सौंपते हैं
कि तुम्हें कहे,
'ओ, हमारे मनीषी पिताओ !
हम तुम्हारे कृतज्ञ हैं !
लेकिन हमें हमारे युग से भी
उतना ही प्यार है !
हम चाहे मर्यादा पुरुषोत्तम न हों
किन्तु हमारा जीवन
हमारे युग का निर्विकार उद्गार है !!'
(1965 में प्रकाशित 'मैं तुम्हारा स्वर' काव्य-संग्रह से साभार)
-मंगल सक्सेना

बुधवार, 23 जनवरी 2013

मंगल सक्सेना की कविता

आधुनिक पोशाकों के विरोधियों से

सुथरी-स्वच्छ गुलाबी पँखुरियों वाली
कमलकली की स्वस्थ गंठीली देह पर
कसी हुई हरी अँखडिय़ों-सी निर्मल पोशाकें
मेरे देश की आधुनिक नारियों की
तुम्हें सुहाती नहीं, मैं जानता हूं!
क्योंकि मैं पहचानता हूं
तुम्हारे अन्तर में विराजमान उस
वानप्रस्थी बूढ़े को
जो सदियों से अधूरे आदर्शों के कुचक्रों में फंसकर
जवानी लगते ही गृहस्थाश्रम त्याग बैठा था
कि जिसके सिर पर शासकों का कूटज्ञ समाजवेत्ता
धार्मिकता और शालीनता के नाम से
निराशा, पलायन और उमंगहीनता का
प्रभावशाली तेल मलता था।
और जो आज भी हीनता की अचार जैसी अनुभूति के
चटखारे लेता है।
जिन्हें उसने समझा नहीं
उन वेदों और पुराणों का हवाला देता है!
गालियों के कीच में
नाक सिकोड़ डुबा लेता है
क्योंकि उन पोशाकों का यही अपराध है
कि वे शरीर की चुस्ती और सामर्थ्य को
निष्कपट भाव से प्रगट करती हैं
किन्तु जिसकी ऊष्मा से बूढ़े फेफड़ों में
खाँसियां उठती हैं!

2.
मेरे देश के आर्थिक पिंजरों की
हिंसक चुनौतियाँ स्वीकारने वाली सबलाएं
समय के यन्त्रों से होड़ लेने वाली गति लिए
घर ही नहीं
देश की दरारों को भरने की शक्ति लिए
ढीली देहों में विद्युत जगा देने की मुक्ति लिए
अगर आज बीसवीं शताब्दि के उत्तरार्द्ध आँगन में
स्वाधीन-समर्थ-गतिवान-मेधावी पीढिय़ों की
खगोल छान लेने वाली
महामाया जननी बनने के लिए
वज़नी कपड़ों के वहमों, अलंकृत आडम्बरों में छुपे
मुँहचोर अत्याचारों को
निर्भीकता से उतार फेंकती हैं
तो तुम्हें प्रसन्नता नहीं होती !
क्योंकि पराधीन होने
और पराधीन  बनाने वाली तुम्हारी लिप्सा
प्रगति के पँखों में लटक जाने वाली
तुम्हारी रूढि़ता
प्रणय को ऐश कीने वाली
तुम्हारी सामन्तवादिता
इन्सानियत और नारीत्व को
पुरुष की भ्रूकृपा समझने वाली मतान्धता
हरम के रेशमीन पर्दे उठाने को आज भी ललकती
तुम्हारी ख़याली उँगलियों की लज्जाहीनता
नारी को  पूँजी समझने वाली सर्पिणी नज़रों की विलासिता
मैं जानता हूँ  कि
तिलमिलाकर, छटपटाकर
अपने विकारों की आग में
भक् से जल उठती है !
मुझे पता है कि
तुम्हारे मानस का-
गौरैया की गर्दन दबोचता बाज
ठहरे जल में अभी ऊब-डूब रहा है।
मरा नहीं !

3.
यह भी मैं जानता हूँ कि मेरी साफ़गोई 
तुम्हें बुरी लगेगी
क्योंकि तन-वसन और वाणी की सादगी से
तुम्हारा अभिप्राय
खरों जैसे कान
चादरों-से परिधान
और 'जान बख्शी जाए माई लॉर्ड !'  वाला
शब्द-ज्ञान रहता है !
लेकिन मैं तुमसे
विनयपूर्वक पूछता हूँ कि
हे मेरे दुस्साहसी दोस्तो !
मुझे ईमानदारी से बताओ
क्या तुम्हें सुन्दरता हथियाने की आदत नहीं?
सात आवरणों में छुपा न हो अगर
पूजा-सा पावन रूप
तो क्या उसे कुचल डालना
तुम्हारी माँसपेशियों की बग़ावत नहीं?
तुम्हें क्यों नहीं लगता कि
जैसे नक्षत्रों ने तेजस्वी तन
गुलाब की पँखुरियों से लिपटकर शीतल किया हो
और हंसों की त्वचा जैसे परिधान में
नारी संज्ञा धरकर
अनागत को वरण करने के लिए
जीवन की विस्तृत कर्मस्थली में
तुम्हें साहचर्य दिया हो?
नक्षत्र-प्रसूनों का समादर करना
अगर तुम्हें नहीं आया
कुण्ठाओं की काई से
अंत:करण का परिष्कार करना
अगर तुम्हें नहीं आया
तो मुझे खेद है कि तुम्हारी लाचारी
तुम्हें कच्चे तट के हताश दलदल में  दफ़ना देगी !
क्योंकि मानव-सभ्यता की वेगवती धारा
आगामी पीढिय़ों में
उन महान् शक्तिमान नर-नारियों को
जन्म देने वाली है
जो अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल से
पृथ्वी को एक यान की तरह
इस दिगन्ती आकाश में
मनचाही दिशाओं में चलाएंगे
वे समस्त रहस्यों के ज्ञाता
ब्रह्मलीन होने से पूर्व
ब्रह्मा हो जाएंगे !!
तुम्हीं कहो,
तब कम्बलों में लिपटी
अपनी भार्या को
कौन-से घर के अँधेरे कमरे में
कौन-से दफ़्तर से लौटकर
अपनी संस्कृति का परदादों वाला कोट उतारकर
कौन-सी खूँटी पर
टाँगने के लिए तुम दोगे?

(1965 में प्रकाशित 'मैं तुम्हारा स्वर' काव्य-संग्रह से साभार)

-मंगल सक्सेना
संपर्क- 53, प्रेम नगर, केशव नगर कॉलोनी, विश्वविद्यालय मार्ग,
उदयपुर-313001
मोबाइल: 09460252555