गुरुवार, 24 नवंबर 2011


मंगल सक्सेना की कविता

प्यार का रिश्ता

कवि मेरे!
प्यार का फीकेपन से कोई रिश्ता नहीं।
उठो, एक भुक्खड़ की तरह
आगे बढ़ो और
बदगुमान भावनाओं वाले
कम्बख्त इंसानों के
गले लग जाओ!!
शहर जब भुजंग की तरह
दिन भर फुफकारता है, और
डरा हुआ, इंसानी बस्तियों का सलोनापन
समय की खान में
बंधुआ मजदूर की तरह थका-हारा
नजरें चुराकर पास से गुजरता है, कवि मेरे!
बेबाक छलांग लगाकर
उसके मन के अंधे कुँए में उतर जाओ।
और चुपके से महफूज सुनाई हुई उसकी
सर्पिणी प्यास की बांबी में हाथ डाल दो।
तुम्हारे उल्लास की ‘न्योछावर’ से
संतुष्ट हो जाने वाली आदिम पिपासा
जब तक तुम्हें डसेगी नहीं
‘विषदंत से’ मुक्त नहीं होगी!!!
लुट जाने की आशंका से त्रस्त
ऐंठी हुई, लूट लेने की आतुरता
से पस्त
विमुखता का मुखौटा लगाए
‘नागरी शालीनता’
प्रेत बाधा की तरह हवाओं में
अदृश्य
तुम्हारी दिलचस्पियों के आसपास मंडराती है;
तुम अपना वही ताबीज पहन लो
जो अशेष समर्पण की
उन्मुक्त चेतना के निश्छल ठहाके ने
तुम्हें दिया था।
कवि मेरे! इस फीकपन के पार
प्रेम का उमड़ता हुआ सागर है।
जब चुल्लू भर पानी के लिए आदमी तरसता है
तभी सागर की खोज होती है। इधर देखो
वार्निश के चलते-फिरते पुतलों के
गोदाम से बाहर आओ,
एक सुपरिचित रोमांच तुम्हें
मनुष्यता के अलौकिक आनंद से भर देगा।।
जंगल जब शहर-बदर काट दिए जाते हैं
और उपवन उजड़ जाते हैं
तब भी,
अपने घर की मुंडेरवाले गमले में
फूलों वाला पौधा उगाया जा सकता है।
कवि मेरे! प्यार का
फीकेपन से कोई रिश्ता नहीं!
-मंगल सक्सेना

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

कविता (समय)

समय

कभी बूढ़ा नहीं होता

जो सठिया जाए!

समय तो बस

समय होता है

कभी अच्छा, कभी बुरा

इसलिए- झोली में

कभी होता है

मुट्ठी भर आटा

और कभी होता है

पेट में सन्नाटा!

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'

बुधवार, 26 जनवरी 2011

मंगल सक्सेना की कविता

युद्ध का आतंक
मैंने कभी युद्ध नहीं देखा
क्या वह इतना ही त्रासदायक है
जितना उसका आतंक ?


कभी अपने ख़ून को बहुत ठंडा
कभी बहुत गर्म महसूस करना और
यह प्रतीक्षा करना कि कब बम गिरे
जीने से कहीं आसान हो जाए मरना!


विशाल हवाई जहाजों का उंगलियों की पोरों को चीर कर
कानों में उतर जाना
हतभाग्य, अधूरी क़ब्र-सी खाई में पड़े
धड़कते सीने पर मुर्दा मांस का बोझ उठाए
उन शब्दों को भिंचे हुए दांतों में सडऩे देना
कि ‘मेरी प्रिया, मेरे रहते तेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है?’
और पास की खाई तक फैले हुए ख़ून में
सने हुए गजरों पर नज़र का पछाड़ खाकर मर जाना!
शर्म के आवेग में भी अवश तनी गर्दन को झुका नहीं पाना
और दिल के चीथड़े करके जलते हुए मलबे में फेंक देना!

संकल्प से नहीं
‘सायरन’ की आवाज़ पर गतिमान होना!
और यह सोचना कि किसी अखब़ार के कोने में
छपी सूची का एक नाम होने में
और इस अस्तित्व को ढोने में
इतना ही फ़र्क है

जितना हॉकर के हाथों में बिकते अखब़ार में
और पाठक की नज़रों से गुज़रे समाचार में!


शासकों के वक्तव्य सुनकर
यह फिजूल समझना कि जीने का अर्थ ढूंढ़ा जाए
नेताओं पर गर्व करने की बात कहना
और मन में पछताना कि
न युद्ध होता है, न युद्ध मिटता है
एक सिर्फ़ ऐलान सारी देह की नसों में गूंजता है।
‘शांति के लिए युद्ध करेंगे’
और कपाल को फोड़कर प्रश्न बाहर आते हैं।
भयानक पक्षियों की तरह फडफ़ड़ाते हैं
‘कब, कब, कब ? ? ?’
‘शांति के लिए युद्ध करेंगे, लेकिन कब ? लेकिन कब?’


और अपने ही हाथ, अपने ही हाथ को मरोडऩे लगते हैं!
क्या युद्ध इन्हें मरोड़कर तोड़ देगा?
या इस मरोडऩे से मुक्ति दिलाएगा?
मैंने कभी युद्ध नहीं देखा।
क्या वह इतना ही त्रासदायक है
जितना उसका आतंक ?
- मंगल सक्सेना

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

यह अनुभव कितना अच्छा है...

यह अनुभव कितना अच्छा है।
कोई मुझको ढूंढ़ रहा है।


बहुत विकल रहती है चिडिय़ा,
उसे न जाने क्या खतरा है।


शाम ढले तुमको देखा था,
शायद आँखों का धोखा है।


उस में डूब गया तब जाना,
वो तो यादों का दरिया है।


खुशबू का होना ना होना,
कई बार मिलता-जुलता है।


हरी घास, सर्दी की रातें,
हम तुम दूर, भला लगता है।


पंछी के पदचिह्न तटों पर,
इससे बढ़कर क्या लिखना है।
-गोपाल गर्ग