शनिवार, 22 मार्च 2014

गीत.....
गा रे ओ मौसम बनजारे
 
  






  


झूम रही फागुनी हवाएं
गा रे ओ मौसम बनजारे।

नयनों के हैं स्वप्न सिंदूरी
छूकर प्रीत निहाल हो गई।
दिल की रीती सूनी झोली
फिर से मालामाल हो गई।
पाँव नहीं थमते धरती पर
पिया-पिया अब हिया पुकारे।

सोंधीली माटी मधुमासित
मन के टोहे अर्थ बताए।
मुग्धा दूब निहारे पथ को
गीत फागुनी उसे रिझाए।
राज़ पलक के होठ छू रहे
होती बातें सांझ-सकारे।

फूलों की आशिक है बुलबुल
कहती तुम मेरे हो मेरे।
बहुत हो चुकी आंख-मिचौली
कभी अंधेरे, कभी उजेरे।
आसमान पंखों में सिमटा
धड़कन सुनते चांद-सितारे।

तन-प्राणों में विश्वासों का
इन्द्रधनुष सीखा मुसकाना।
मन के मीत, पंथ के साथी
देखो मुझको भूल न जाना
शगुन रस्म को चले निभाते
दो आंसू ये प्यारे-प्यारे।
गा रे ओ मौसम बनजारे।

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
 

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