बुधवार, 23 जनवरी 2013

मंगल सक्सेना की कविता

आधुनिक पोशाकों के विरोधियों से

सुथरी-स्वच्छ गुलाबी पँखुरियों वाली
कमलकली की स्वस्थ गंठीली देह पर
कसी हुई हरी अँखडिय़ों-सी निर्मल पोशाकें
मेरे देश की आधुनिक नारियों की
तुम्हें सुहाती नहीं, मैं जानता हूं!
क्योंकि मैं पहचानता हूं
तुम्हारे अन्तर में विराजमान उस
वानप्रस्थी बूढ़े को
जो सदियों से अधूरे आदर्शों के कुचक्रों में फंसकर
जवानी लगते ही गृहस्थाश्रम त्याग बैठा था
कि जिसके सिर पर शासकों का कूटज्ञ समाजवेत्ता
धार्मिकता और शालीनता के नाम से
निराशा, पलायन और उमंगहीनता का
प्रभावशाली तेल मलता था।
और जो आज भी हीनता की अचार जैसी अनुभूति के
चटखारे लेता है।
जिन्हें उसने समझा नहीं
उन वेदों और पुराणों का हवाला देता है!
गालियों के कीच में
नाक सिकोड़ डुबा लेता है
क्योंकि उन पोशाकों का यही अपराध है
कि वे शरीर की चुस्ती और सामर्थ्य को
निष्कपट भाव से प्रगट करती हैं
किन्तु जिसकी ऊष्मा से बूढ़े फेफड़ों में
खाँसियां उठती हैं!

2.
मेरे देश के आर्थिक पिंजरों की
हिंसक चुनौतियाँ स्वीकारने वाली सबलाएं
समय के यन्त्रों से होड़ लेने वाली गति लिए
घर ही नहीं
देश की दरारों को भरने की शक्ति लिए
ढीली देहों में विद्युत जगा देने की मुक्ति लिए
अगर आज बीसवीं शताब्दि के उत्तरार्द्ध आँगन में
स्वाधीन-समर्थ-गतिवान-मेधावी पीढिय़ों की
खगोल छान लेने वाली
महामाया जननी बनने के लिए
वज़नी कपड़ों के वहमों, अलंकृत आडम्बरों में छुपे
मुँहचोर अत्याचारों को
निर्भीकता से उतार फेंकती हैं
तो तुम्हें प्रसन्नता नहीं होती !
क्योंकि पराधीन होने
और पराधीन  बनाने वाली तुम्हारी लिप्सा
प्रगति के पँखों में लटक जाने वाली
तुम्हारी रूढि़ता
प्रणय को ऐश कीने वाली
तुम्हारी सामन्तवादिता
इन्सानियत और नारीत्व को
पुरुष की भ्रूकृपा समझने वाली मतान्धता
हरम के रेशमीन पर्दे उठाने को आज भी ललकती
तुम्हारी ख़याली उँगलियों की लज्जाहीनता
नारी को  पूँजी समझने वाली सर्पिणी नज़रों की विलासिता
मैं जानता हूँ  कि
तिलमिलाकर, छटपटाकर
अपने विकारों की आग में
भक् से जल उठती है !
मुझे पता है कि
तुम्हारे मानस का-
गौरैया की गर्दन दबोचता बाज
ठहरे जल में अभी ऊब-डूब रहा है।
मरा नहीं !

3.
यह भी मैं जानता हूँ कि मेरी साफ़गोई 
तुम्हें बुरी लगेगी
क्योंकि तन-वसन और वाणी की सादगी से
तुम्हारा अभिप्राय
खरों जैसे कान
चादरों-से परिधान
और 'जान बख्शी जाए माई लॉर्ड !'  वाला
शब्द-ज्ञान रहता है !
लेकिन मैं तुमसे
विनयपूर्वक पूछता हूँ कि
हे मेरे दुस्साहसी दोस्तो !
मुझे ईमानदारी से बताओ
क्या तुम्हें सुन्दरता हथियाने की आदत नहीं?
सात आवरणों में छुपा न हो अगर
पूजा-सा पावन रूप
तो क्या उसे कुचल डालना
तुम्हारी माँसपेशियों की बग़ावत नहीं?
तुम्हें क्यों नहीं लगता कि
जैसे नक्षत्रों ने तेजस्वी तन
गुलाब की पँखुरियों से लिपटकर शीतल किया हो
और हंसों की त्वचा जैसे परिधान में
नारी संज्ञा धरकर
अनागत को वरण करने के लिए
जीवन की विस्तृत कर्मस्थली में
तुम्हें साहचर्य दिया हो?
नक्षत्र-प्रसूनों का समादर करना
अगर तुम्हें नहीं आया
कुण्ठाओं की काई से
अंत:करण का परिष्कार करना
अगर तुम्हें नहीं आया
तो मुझे खेद है कि तुम्हारी लाचारी
तुम्हें कच्चे तट के हताश दलदल में  दफ़ना देगी !
क्योंकि मानव-सभ्यता की वेगवती धारा
आगामी पीढिय़ों में
उन महान् शक्तिमान नर-नारियों को
जन्म देने वाली है
जो अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल से
पृथ्वी को एक यान की तरह
इस दिगन्ती आकाश में
मनचाही दिशाओं में चलाएंगे
वे समस्त रहस्यों के ज्ञाता
ब्रह्मलीन होने से पूर्व
ब्रह्मा हो जाएंगे !!
तुम्हीं कहो,
तब कम्बलों में लिपटी
अपनी भार्या को
कौन-से घर के अँधेरे कमरे में
कौन-से दफ़्तर से लौटकर
अपनी संस्कृति का परदादों वाला कोट उतारकर
कौन-सी खूँटी पर
टाँगने के लिए तुम दोगे?

(1965 में प्रकाशित 'मैं तुम्हारा स्वर' काव्य-संग्रह से साभार)

-मंगल सक्सेना
संपर्क- 53, प्रेम नगर, केशव नगर कॉलोनी, विश्वविद्यालय मार्ग,
उदयपुर-313001
मोबाइल: 09460252555