शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

सुधीर सक्सेना 'सुधि'की कविताएं


चार कविताएं 
1.
हमारे होने के ख़िलाफ़
रात होगी, उजाला दुबक जाएगा
तब हम लालटेन जलाएंगे
और कुछ देर बाद
पेड़  के नीचे, चौपाल पर बैठे
एक-दूसरे के चेहरे पढ़  रहे होंगे
हमारे हाथों में कागजी संबंध
फड़फड़ा  रहे होंगे
और छोटे बच्चे
कच्ची नींद से जाग कर देखेंगे
संभव है
हम निःशब्द हो जाएं
और तोडता चला जाए समय
हमारी प्रतिबद्धताएं
तब
सिर्फ सन्नाटा होगा
हमारे होने के ख़िलाफ़
क्या बच्चे
सुबह हमें कर देंगे माफ ?

2. 
 हर बार.....
र बार ऐसा होता है
कि मेरे भीतर की दीवार ढह
जाती है और आंगन में खिलकर झरे
फूलों की बिरादरी बह जाती है।
न वापिस दीवार चुनी जाती है,
न ही बह चुकी पंखुड़ियां
समेटी जाती हैं।
झुलसा देने वाली दोपहरी में
गुलमोहर तले मेरे भीतर का लावा
अकेले क्षणों को तोडकर
बाहर आ जाता है।
सन्नाटों को बुनने का यही तो वक्त होता है,
जब आसपास कोई नहीं होता,
तब चाह कर भी शून्य से
नहीं निकल पाना मेरी मजबूरी होती है।
बेबुनियाद अपनेपन की पीडा को
हथेली पर उतार कर मुस्करा लेता हूं और
रूमाल से आंसू पोंछकर
इतरा लेता हूं।

3 . 
शरारती झोंके
मरे में दिन ढलने के बाद का अंधेरा
जाली में से रिमझिम देखते हम।
मेरी हथेली के बीच
आश्वस्त तुम्हारी हथेली!
जाली में से आती
बारीक फुहारों से
भीगते हमारे चेहरे
तुमने अपने आंचल से पोंछे और
मेरे कंधे पर टिका दिया अपना सिर।
अचानक हवा के झोंके
करने लगे शरारत
अपनी झोली में
भर-भर कर पानी
हमारी खिडकी में उढेलने लगे.....
मुझे तो अच्छा लगा
हवा का यह मासूम खेल
पर न जाने क्यों
तुमने मुझे झिडक दिया-
’चलो हटो यहां से
यहीं खडे रहे तो
और अधिक छेडेंगे
हवा के ये शरारती झोंके
और पानी की फुहारें
और तुम.....
तुम भी इनका ही साथ दोगे
मुझे सब पता है.....!'

4.   
तुम भी मुस्कराओ एक बार
चुप है धरती
मौन है आकाश
हरसिंगार फूल लुटाकर
मुस्कुरा रहा है
सिर्फ हवा
तुम्हारे चेहरे को
छू जाती है बार-बार
तुम भी मुस्कराओ एक बार।
ताकि चुप धरती,
मौन आकाश को राहत मिले कि
मैं खुश हूं और मुझे
जीवन जीने का एक
बहाना मिल गया है।
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'

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