शनिवार, 15 जून 2013

सुधीर सक्सेना 'सुधि' की बाल कहानी

कौन जीता, कौन हारा

चुकलू खरगोश स्कूल से घर लौट रहा था। वह आज अकेला ही था। हमेशा की तरह उसके पड़ोस में रहने वाला उछलू मेढक तबीयत ठीक नहीं होने से आज स्कूल नहीं गया था।
मास्टरजी ने जो पाठ पढ़ाया था, चुकलू उसके बारे में सोच रहा था। 'कछुआ और खरगोश' का पाठ। लेकिन यह बात उसकी समझ में नहीं आई कि धीरे-धीरे चलने वाला कछुआ तेज दौडऩे वाले खरगोश से आखिर हार कैसे गया?
चुकलू  को तब बड़ी शरम महसूस हुई थी, जब अन्य साथियों ने उसकी हंसी उड़ाई थी कि बड़ा आया तेज दौडऩे वाला.....एक कछुए से हार गया!
कक्षा में सबसे पीछे बैठने वाला धीमू कछुआ भी ही-ही करता हंस रहा था।
'तुम्हें तो मैं स्कूल की छुट्टी के बाद देखूंगा।' चुकलू खरगोश बुदबुदाया था।
स्कूल की छुट्टी के बाद रास्ते में चुकलू खरगोश एक झाड़ी में छिपकर बैठ गया। धीमू कछुआ धीरे-धीरे आ रहा था। जैसे ही वह समीप आया, चुकलू उछलकर उसके सामने आ गया।
'अब बोल बच्चू! क्यों हंस रहा था मुझ पर?'
धीमू कछुआ नम्रता से बोला- 'चुकलू, मैं तुम पर नहीं, कहानी सुन कर हंसा था।'
'नहीं, तुम मुझे देख कर हंसे थे। मैं भी खरगोश हूं।' कहते हुए चुकलू ने एक पंजा कछुए की पीठ पर मारा।
कछुए के तो कुछ असर नहीं हुआ लेकिन चुकलू के पंजे में दर्द होने लगा। वह पीछे हट गया। जाते-जाते बोला-'कोई बात नहीं, कल बताऊंगा तुझे। मेरा दोस्त उछलू आज मेरे साथ नहीं है।'
अगले दिन सुबह स्कूल जाते समय चुकलू ने उछलू मेढक को सारी बात बताई।
उछलू खूब जोर से उछलने लगा। 'उसकी इतनी हिम्मत कि वह तुम्हें देख कर हंसे! मैं उसका हंसना भुला दूंगा।'
आज मास्टरजी ने एक कविता सुनाई-'बरसाती मेढक'। आज भी बड़ा मजा आया। चुकलू  तो ठहाका मारते हंस पड़ा। उछलू ने देखा तो उसे गुस्सा आ गया। बोला- 'चुकलू , तू तो मेरा दोस्त है। फिर भी हंस रहा है?'
'हां, हंस रहा हूं बरसाती मेढक।' कहता हुआ चुकलू और जोर से हंसा-ही...ही...ही...। उछलू मेढक ने धीमू कछुए की ओर देखा। बोला-'देख, धीमू  तो नहीं हंसा। लेकिन तू हंसा। छुट्टी के बाद मैं तुझे बताऊंगा। तेरा हंसना भुला दूंगा।'
'अरे जा-जा। बड़ा आया, बताने वाला।' चुकलू ने उसकी खिल्ली उड़ाई।
स्कूल से बाहर आकर खरगोश ने कहा- 'तू क्या बताएगा! ले, मैं बताता हूं, तुझे।' कहते हुए उसने एक पंजा उछलू के मारा। उछलू सावधान था, फौरन उछला लेकिन खरगोश की पीठ पर पर जा गिरा।
चुकलू खरगोश धम् से वहीं बैठ गया। उछलू तो अपने घर चला गया।
पीछे-पीछे धीमू कछुआ आ रहा था। उसने रुक कर पूछा-'क्या हुआ चुकलू ?'
'कुछ नहीं।'
'मैंने देखा है सब कुछ। उछलू तुम्हारी पीठ पर कूदा था, इससे दर्द हो रहा है न।' चुकलू चुप।
'चलो, मेरी पीठ पर बैठ जाओ।'
दर्द के मारे, कराहता हुआ चुकलू, धीमू की पीठ पर बैठ गया।
रास्ते में धीमू  बोला-'जब उछलू तुम्हारी पीठ पर कूदा था, वह दृश्य वाकई हंसाने वाला था। मैं भी हंसा था लेकिन धीरे से।'
चुकलू चुप था। कछुआ बोला- 'लेकिन यह हंसी स्वाभाविक थी। इसका यह अर्थ नहीं कि तुम्हारी किसी कमजोरी पर हंस कर मजाक बनाया। दोस्त, एक सुझाव है, तुम्हारे लिए कि सहज रहना सीखो। आज के इस तनाव भरे युग में छोटी-छोटी बातों से परेशान होओगे तो कैसे काम चलेगा? अपना खून जलाने से कोई फायदा नहीं। और सुनो, कौन जीता, कौन हारा, यह सब भी बेकार की बातें हैं।'
'हां, धीमू, तुम ठीक कहते हो। मैं समझ गया।' चुकलू बोला।
चुकलू खरगोश का घर आ गया था। कछुए को धन्यवाद देता हुआ वह उसकी पीठ से उतर गया।
चुकलू खरगोश सोच रहा था- 'हार तो मैं आज भी गया हूं कछुए से। आज उसकी मदद, उसकी विनम्रता ने मुझे हरा दिया  है।'


-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
मो. 09413418701
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

मंगलवार, 11 जून 2013

सुधीर सक्सेना 'सुधि' की बाल कहानी

गलती से मिली खुशी

राजू देखने में जितना भोला लगता था, उतना ही शरारती भी था। उसे केवल इस बात में मजा आता था कि  वह दूसरों को  परेशान करे, उन्हें सताए। वह अपनी छोटी बहिन रश्मि की आते-जाते चोटी खींच देता, कभी उसके  खिलौने तोड़ देता। कालोनी के अन्य बच्चों के  साथ खेल ही खेल में किसी बच्चे को  धक्का दे देता। वह गिर जाता तो राजू हंसने लगता। स्कूल में भी पढ़ाई की बजाय शरारत ही अधिक करता। मौका  पाकर किसी
के बस्ते से कापी, पेंसिल, रबर आदि निकाल कर दूसरे बच्चे के बस्ते में डाल देता। खोजने पर जब दूसरे के बस्ते से कापी या पेंसिल,रबर आदि निकलता तो अध्यापक उस बच्चे को  डांटते। राजू खिलखिलाकर  हंस पड़ता। कभी वह अपने मम्मी-पापा के साथ किसी रिश्तेदार अथवा किसी परिचित के घर जाता तो वहां भी कोई न कोई शरारत करने से नहीं चूकता। उसके मम्मी-पापा को शर्मिंदा होना पड़ता। कई बार तो वे उसे
अपने साथ ही नहीं ले जाते थे।
ऐसा नहीं था कि उसे शरारत के कारण डांट-फटकार नहीं पड़ती हो,लेकिन उस पर असर ही नहीं होता था। मम्मी-पापा दोनों ही चिंतित थे। उन्हें कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। डांट-फटकार,पिटाई का भी उस पर कोई  असर नहीं होता था। प्यार से तो वह समझता ही नहीं था।
उस दिन शाम को  वह खेल कर  घर लौट रहा था। उसे सड़क के उस पार जाना था। लेकिन वाहनों का  रेला था कि खत्म ही नहीं हो रहा था। वह सड़क के खाली होने की  प्रतीक्षा करने लगा। तभी उसकी नज़र एक बुजुर्ग व्यक्ति पर गई। वह भी शायद सड़क के उस पार जाना चाहते थे।
राजू के दिमाग में एक शरारत भरा विचार भी आ रहा था। उन बुजुर्ग के सहारे वह भी सड़क पार कर  लेगा और फिर उनकी  छड़ी छीनकर दूर फेंक देगा। बहुत मजा आएगा। वह मन ही मन हंस पड़ा। वह उन बुजुर्ग के  पास आया और उनकी छड़ी पकड़ कर बोला-‘दादाजी,चलिए। मैं आपको सड़क पार करवा दूं।’ बुजुर्ग व्यक्ति खुश हो गए। उन्हें सड़क  पार करते देखकर वाहन चालकों ने अपने वाहन धीमे कर लिए थे। वह उनकी छड़ी पकड़ कर
सड़क के उस पार ले आया। ‘अब इनकी छड़ी खींच लेता हूं,मैंने हाथ में तो पकड़ ही रखी है।’उसने सोचा। वह शरारत करने ही वाला था कि तभी एक स्कूटर उनके पास रुका। वे बुजुर्ग बोले-‘मेरा बेटा आ गया।’ राजू ने देखा-पापा की उम्र का एक व्यक्ति स्कूटर पर सवार था। राजू कुछ कर न सका। वे बुजुर्ग बोले-‘बेटा, इस बच्चे ने मुझे सड़क  पार करवाई है।’ फिर उन्होंने राजू के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए
आशीर्वाद दिया-'तुम बहुत अच्छे बच्चे हो! ईश्वर हमेशा तुम्हें सुखी रखे।’उनके बेटे ने भी उसे थैंक्स कहा।
फिर बुजुर्ग अपने बेटे के  साथ स्कूटर पर बैठकर चले गए।
‘ओह, इनके  बेटे को  भी अभी ही आना था। शरारत का मौका हाथ से निकल गया।’ वह बुदबुदाया। लेकिन मेरे मन में खुशी-सी क्यों है? वाकई,राजू के मन में तो एक अजीब-सी उमंग थी। उसने खुशी-खुशी घर की ओर दौड़  लगाई। आज तो जैसे उसके पाँव जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। मम्मी-पापा और उसकी  छोटी बहिन बाहर लॉन में बैठे थे। मम्मी ने पूछा-‘आज इतना खुश-खुश क्यों लग रहे हो?’
तभी पापा बोले-‘फिर कोई शरारत करके आया होगा। देखना अभी कोई न कोई इसकी शिकायत लेकर आता ही होगा।’
‘नहीं पापा, आज ऐसा नहीं होगा।’ राजू बोला। पापा ने चकित भाव से उसकी ओर देखा।
‘मैं सच कह  रहा हूं।’ राजू ने सारी बात बताई, फिर बोला-‘पापा,मैं तो शरारत के मूड में ही था। यह तो गलती से ही एक अच्छा काम मुझसे हो गया। शायद इसी की खुशी मुझे हुई हो।’
मम्मी ने कहा-‘बेटा, शायद नहीं, यही वास्तविकता है। इसमें उन बुजुर्ग के हृदय से निकला ईश्वर का आशीर्वाद भी शामिल है जो उनके माध्यम से तुम्हें  मिला है। जब इस छोटे-से नेक काम से तुम्हारा मन इतना खुश हुआ तो सोचो, हमेशा ही अच्छे काम,दूसरों की मदद करने से कितनी खुशी मिलती होगी।’ एक  पल रुक कर मम्मी फिर बोलीं-‘बेटा, बड़े-बुजुर्ग तो यही सिखाते आए हैं कि भले ही किसी के सुख में साथी न
बनो लेकिन दु:ख में ज़रूर बनो। इससे मन को बहुत संतुष्टि मिलती है। यही नहीं,जब हम भी कभी किसी कारण से दु:खी होते हैं तो ईश्वर भी अच्छे लोगों के माध्यम से हमारा दु:ख, हमारी परेशानी दूर करवाता है, हमारी मदद भी करवाता है। लेकिन  तुम तो हमेशा ही केवल अपने मनोरंजन के लिए किसी को भी दु:खी कर देते हो।’किसी को भी परेशानी में डाल देते हो। कभी सोचा है कि जिन्हें तुम सताते हो,जिनका उपहास
करते हो,जिनके लिए मुसीबत खड़ी कर देते हो,उन्हें कितना दु:ख पहुंचता होगा।’
राजू चुपचाप सिर नीचा किए सुन रहा था। पापा ने कहा-‘बेटा, जो व्यक्ति अच्छा काम करता है, उसकी  अनुभूति और भी अच्छे काम करने की ओर प्रेरित करती है। हमें उम्मीद है,तुम आगे भी अच्छे और नेक काम ही करोगे।’
आज पहली बार राजू की आंखों से आंसू टपके। मम्मी-पापा और रश्मि ने ही नहीं,स्वयं राजू ने भी महसूस किया  कि यह पश्चाताप के आंसू हैं,जिनसे सारी शरारतें बह गई हैं।
मम्मी-पापा ने उसे गले लगा लिया। रश्मि भी उससे लिपट गई। राजू के  दिमाग में बुजुर्ग के कहे शब्द ‘तुम बहुत अच्छे बच्चे हो! ईश्वर हमेशा तुम्हें  सुखी रखे।’ घूमने लगे। उसने दृढ़ निश्चय किया कि  वह ‘बहुत अच्छा बच्चा’ बनकर ही रहेगा। उसे ईश्वर के आशीर्वाद की अनुभूति अभी तक भी हो रही थी।

- सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
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