शनिवार, 20 जुलाई 2013

चित्र: गूगल से साभार
लघु कथा
लघु कथा की कथा
उस दिन मैं एक साहित्यिक पत्रिका का लघुकथा अंक पढ़ रहा था। सभी लघुकथाएं अच्छी थीं। लेकिन एक लघुकथा पढ़कर मन भर आया। लघुकथा एक बूढ़े साइकिल-रिक्शा वाले से संबंधित थी। तभी मेरी आंखों के सामने एक घटना घूम गई। बिलकुल इसी तरह की एक घटना का तो मैं भी गवाह हूं।
बरसों पहले एक लेखक मित्र किसी सरकारी काम से मेरे शहर आए थे। काम निपटाकर शाम को वे मेरे घर आने वाले थे, ऐसा उन्होंने मुझे पूर्व में पत्र से सूचित किया था। दफ्तर से आने के बाद मैं उनकी ही प्रतीक्षा कर रहा था।
तभी मेरे घर के बाहर से आ रही तेज़ आवाज़ों ने मेरा ध्यान खींचा। मैं बाहर की ओर लपका। देखा, मेरे लेखक मित्र एक बूढ़े साइकिल-रिक्शा वाले से बहस कर रहे हैं। मुझे देख कर तो वे और भी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगे। मैंने उनके हाथ जोड़े 'भाई, मेरे अड़ोस-पड़ोस का तो खयाल करो।' वे चुप तो हो गए; किंतु उत्तेजित अवस्था में ही खड़े रहे। साइकिल-रिक्शा वाले का कहना था कि वह सचिवालय से इतनी दूर लाया है, इसलिए उसे बीस रुपए ही दिए जाएं। लेकिन मेरे मित्र का कहना था कि यह बिलकुल गलत बात है। साइकिल-रिक्शा वाले से तो पांच रुपए में आना तय हुआ था।
माजरा कुछ समझ में नहीं आया। मैंने उस बूढ़े साइकिल-रिक्शा चालक से कहा- 'बाबा, आपका नुकसान नहीं होगा, आप पहले पूरी बात तो बताओ।' पसीने से लथपथ  दुबली-सी काया वाले उस साइकिल-रिक्शा चालक ने बताया कि ये, सचिवालय के नज़दीक जो तिलक मार्ग है, वहां जाने के लिए मेरे रिक्शा में बैठे थे। मैंने इनसे आठ रुपए मांगे। लेकिन ये पांच रुपए ही देना चाहते थे। मैं मान गया। वहां ये बाबूजी आपका घर ढूंढ़ रहे थे। आपका मकान नंबर वहां नहीं मिल रहा था। मैंने एक बार कहा भी था कि बाबूजी, पता तो आपको ठीक से मालूम है न?
हां-हां, मालूम है, सी-12, तिलक नगर।
मैंने रिक्शा रोक दिया। कहा- 'तिलक नगर! वह तो यहां से काफी दूर है। आपने मुझे तिलक मार्ग क्यों बताया?' ये बोले, मुंह से निकल गया। कोई बात नहीं, वहीं चलो भाई। मैं इन्हें यहां ले आया। मेरी गलती सिर्फ इतनी-सी है कि मैंने इनसे वहीं तय नहीं किया कि अब भाड़ा पांच रुपए नहीं, बीस रुपए लगेगा। अब, जब मैं इनसे बीस रुपए मांग रहा हूं, तो ये सिर्फ पांच रुपए ही टिकाना चाहते हैं। चलो, दो रुपए कम दे दो, अट्ठारह दे दो लेकिन मेरे बुढ़ापे के पसीने का तो खयाल करो।
मुझे सारी बात समझ में आ गई थी। मैंने साइकिल-रिक्शा वाले का ही पक्ष लिया और उसे बीस रुपए देने लगा। मित्र को  यह अच्छा नहीं लगा, सो उन्होंने बे-मन से अपनी जेब से बीस रुपए निकाल कर उसे दे दिए। साइकिल-रिक्शा वाला चला गया। मित्र रिक्शा वाले के साथ-साथ मुझ पर भी बड़बड़ाते हुए भीतर आ गए।
मैंने कहा- 'आप गरीबों की समस्याओं  पर लेखन करते हैं, और आपने ही एक गरीब साइकिल-रिक्शा वाले का दिल दु:खा दिया?'
वे बोले, 'अरे छोड़ो भी लूट मचा रखी है लूट! पैसे क्या पेड़ पर उगते हैं?'
मैं चुप ही रहा। फिर बात आई-गई हो गई। दूसरे दिन वे चले गए।
वाकई, यह लघु-कथा तो बहुत ही मार्मिक है। उत्सुकतावश मैंने लघुकथाकार का नाम पढ़ा तो लगा-स्वाद कसैला हो गया है! लघु कथा के नीचे उन्हीं मित्र का नाम छपा था!!

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
मो. 09413418701
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com

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