रविवार, 3 फ़रवरी 2013

मंगल सक्सेना की कविता

हम राजर्षियों के वंशज

राजर्षियों ने तप किया था
सत्य शोधा था
हमारे लिए
हम उपकृत हैं
कभी, जब उन्हें
नसों में महकता महुआ
चिटखता गुलाब,
अँगड़ाती रातरानी का जादुई सैलाब
जगाता था,
अपना फर्ज़  निभाता था
तो अपने ध्यान से विगलित
उनकी चेतना में समाया
चिन्तकों की ऊँची जमातवाला क्रोध
उफ़न आता था,
यह हमारी समझ में आता है
कि जीवन का एक भाग
क्यों काट दिया जाता था !

राजगुरुओं ने सत्य जाना था
यह अतल सौर-मण्डल
उनका कितना पहचाना था !
किन्तु अपने नेत्रों से जिन्हें पोसा था !
उन ज्योतिकणों की नियति के अंधकार से घबराकर
जब उन्होंने आँखें मूंद ली थीं-
उस अन्तराल से भयभीत होकर
उन्होंने हमारे युग को कोसा था
सत्य की शोध,
उनका तप,
उनका ज्ञान,
वहीं रुक गए थे
हमें केवल निरर्थकता, अनिश्चय
विरासत में देने के लिए
वासना विहीन अंगारे की तरह चुक गए थे !
लेकिन उस अन्तराल को हमने पार किया है
अँधेरे को भी प्यार दिया है
हमने विष जिया है।
महज़ उस भूल को सुधारने के लिए
जो हमारे बुज़ुर्गों ने की थी
जो काल हमारे भविष्यत का सुन्दर आँगन होता
हमने धुँआले गलियारे की तरह पाया
अपना नर्म पँखों-सा विश्वास खोया
अँधेरे में झपटते हिंसक पंजों में
हमने संवेदनाओं के सुकुमार खगकुल को भी लुटाया
मगर फिर भी
अपनी ज्ञान-पिपासु
स्वाधीन शावक-मृगी-आत्मा को
यहाँ तक, उजाले तक पहुँचाया !
और यह भूल
जिसे जानबूझकर करना
हमारे व्यवस्थापकों-शासक-पिताओ ! तुम्हारे लिए
स्वाभाविक था
अब हमारे लिए सम्भव नहीं है !
तुमने सत्य पाया
किन्तु कृपणता से बाँटा
एक इन्सान को वर्गों में काटा, वर्णों में छाँटा
इन्सानियत को अपनी पूँजी बनाया
ओ हमारे ज्ञानी पिताओ !
सत्य देने का मोल
तुमने कितना महँगा लगाया?

अब वही युग हमारे शीश पर
शिव के चन्द्र की तरह सुशोभित है
जिसे तुमने कलंकित कहा था
जिसने हमें विराट करुणा और सौहार्द का
शारदीय क्षीर-पात्र दिया है,
वही युग
हमारी तपस्या के द्वारा
अतीत के दाग़  से
उन्मोचित है !
हमारी तपस्या
हमारे रक्त की मेघमयी ऊष्मा से खण्डित नहीं होती !
हमारी तपस्या
अप्सराएं भंग नहीं करतीं !
क्योंकि ओ वीतरागी पिताओ !
हम जीवन के प्रति कृपण नहीं हैं !!
हमारे युग में
वे अप्सराएं सरस उद्यान की
समान स्वाधीन, सत्यार्थिनी
पुष्पिता सूर्यमुखी चेतनाएँ हैं !
उन्हें अपने तप भंग की
उतनी ही चिन्ता है, जितनी हमें !
वाष्पीय सांसों से
संस्पर्श से बचने की
उनमें भी उतनी ही आतुरता है
जितनी तुम्हारे युग में
पवित्र जिज्ञासा सहने की तपश्चर्या
तोड़ डालने की बेकली
देवताओं के महाराजा इन्द्र को रहती थी !
और आज इन्द्र औंधे मुँह
अपने सिंहासन से नीचे पड़ा है
क्योंकि
अप्सराएं हमारी बन्धु हैं
किसी निरंकुश की विलास प्रियाएं नहीं !!
आज हम धरती के नर-नारी
बन्धुत्व की अगाध शक्तियाँ लेकर
अपनी चेतना के विस्तार में
समस्त सौर मण्डल समोये
सम्पूर्ण सत्य पाने को लालायित
तप:लीन, पर्युत्सक,
अपनी सन्तानों के माध्यम बने
भविष्यत को केवल एक परम्परा सौंपते हैं
कि तुम्हें कहे,
'ओ, हमारे मनीषी पिताओ !
हम तुम्हारे कृतज्ञ हैं !
लेकिन हमें हमारे युग से भी
उतना ही प्यार है !
हम चाहे मर्यादा पुरुषोत्तम न हों
किन्तु हमारा जीवन
हमारे युग का निर्विकार उद्गार है !!'
(1965 में प्रकाशित 'मैं तुम्हारा स्वर' काव्य-संग्रह से साभार)
-मंगल सक्सेना

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें