सुधीर सक्सेना 'सुधि' की बाल कहानी
कौन जीता, कौन हारा
चुकलू
खरगोश स्कूल से घर लौट रहा था। वह आज अकेला ही था। हमेशा की तरह उसके
पड़ोस में रहने वाला उछलू मेढक तबीयत ठीक नहीं होने से आज स्कूल नहीं गया
था।
मास्टरजी ने जो पाठ पढ़ाया था, चुकलू उसके बारे में सोच रहा था।
'कछुआ और खरगोश' का पाठ। लेकिन यह बात उसकी समझ में नहीं आई कि धीरे-धीरे
चलने वाला कछुआ तेज दौडऩे वाले खरगोश से आखिर हार कैसे गया?
चुकलू को तब बड़ी शरम महसूस हुई थी, जब अन्य साथियों ने उसकी हंसी उड़ाई थी कि बड़ा आया तेज दौडऩे वाला.....एक कछुए से हार गया!
कक्षा में सबसे पीछे बैठने वाला धीमू कछुआ भी ही-ही करता हंस रहा था।
'तुम्हें तो मैं स्कूल की छुट्टी के बाद देखूंगा।' चुकलू खरगोश बुदबुदाया था।
स्कूल
की छुट्टी के बाद रास्ते में चुकलू खरगोश एक झाड़ी में छिपकर बैठ गया।
धीमू कछुआ धीरे-धीरे आ रहा था। जैसे ही वह समीप आया, चुकलू उछलकर उसके
सामने आ गया।
'अब बोल बच्चू! क्यों हंस रहा था मुझ पर?'
धीमू कछुआ नम्रता से बोला- 'चुकलू, मैं तुम पर नहीं, कहानी सुन कर हंसा था।'
'नहीं, तुम मुझे देख कर हंसे थे। मैं भी खरगोश हूं।' कहते हुए चुकलू ने एक पंजा कछुए की पीठ पर मारा।
कछुए
के तो कुछ असर नहीं हुआ लेकिन चुकलू के पंजे में दर्द होने लगा। वह पीछे
हट गया। जाते-जाते बोला-'कोई बात नहीं, कल बताऊंगा तुझे। मेरा दोस्त उछलू
आज मेरे साथ नहीं है।'
अगले दिन सुबह स्कूल जाते समय चुकलू ने उछलू मेढक को सारी बात बताई।
उछलू खूब जोर से उछलने लगा। 'उसकी इतनी हिम्मत कि वह तुम्हें देख कर हंसे! मैं उसका हंसना भुला दूंगा।'
आज
मास्टरजी ने एक कविता सुनाई-'बरसाती मेढक'। आज भी बड़ा मजा आया। चुकलू तो
ठहाका मारते हंस पड़ा। उछलू ने देखा तो उसे गुस्सा आ गया। बोला- 'चुकलू ,
तू तो मेरा दोस्त है। फिर भी हंस रहा है?'
'हां, हंस रहा हूं बरसाती
मेढक।' कहता हुआ चुकलू और जोर से हंसा-ही...ही...ही...। उछलू मेढक ने धीमू
कछुए की ओर देखा। बोला-'देख, धीमू तो नहीं हंसा। लेकिन तू हंसा। छुट्टी के
बाद मैं तुझे बताऊंगा। तेरा हंसना भुला दूंगा।'
'अरे जा-जा। बड़ा आया, बताने वाला।' चुकलू ने उसकी खिल्ली उड़ाई।
स्कूल
से बाहर आकर खरगोश ने कहा- 'तू क्या बताएगा! ले, मैं बताता हूं, तुझे।'
कहते हुए उसने एक पंजा उछलू के मारा। उछलू सावधान था, फौरन उछला लेकिन
खरगोश की पीठ पर पर जा गिरा।
चुकलू खरगोश धम् से वहीं बैठ गया। उछलू तो अपने घर चला गया।
पीछे-पीछे धीमू कछुआ आ रहा था। उसने रुक कर पूछा-'क्या हुआ चुकलू ?'
'कुछ नहीं।'
'मैंने देखा है सब कुछ। उछलू तुम्हारी पीठ पर कूदा था, इससे दर्द हो रहा है न।' चुकलू चुप।
'चलो, मेरी पीठ पर बैठ जाओ।'
दर्द के मारे, कराहता हुआ चुकलू, धीमू की पीठ पर बैठ गया।
रास्ते में धीमू बोला-'जब उछलू तुम्हारी
पीठ पर कूदा था, वह दृश्य वाकई हंसाने वाला था। मैं भी हंसा था लेकिन धीरे से।'
चुकलू
चुप था। कछुआ बोला- 'लेकिन यह हंसी स्वाभाविक थी। इसका यह अर्थ नहीं कि
तुम्हारी किसी कमजोरी पर हंस कर मजाक बनाया। दोस्त, एक सुझाव है, तुम्हारे
लिए कि सहज रहना सीखो। आज के इस तनाव भरे युग में छोटी-छोटी बातों से
परेशान होओगे तो कैसे काम चलेगा? अपना खून जलाने से कोई फायदा नहीं। और
सुनो, कौन जीता, कौन हारा, यह सब भी बेकार की बातें हैं।'
'हां, धीमू, तुम ठीक कहते हो। मैं समझ गया।' चुकलू बोला।
चुकलू खरगोश का घर आ गया था। कछुए को धन्यवाद देता हुआ वह उसकी पीठ से उतर गया।
चुकलू खरगोश सोच रहा था- 'हार तो मैं आज भी गया हूं कछुए से। आज उसकी मदद, उसकी विनम्रता ने मुझे हरा दिया है।'
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
मो. 09413418701
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com
मंगलवार, 11 जून 2013
सुधीर सक्सेना 'सुधि' की बाल कहानी
गलती से मिली खुशी
राजू देखने में जितना भोला लगता था, उतना ही शरारती भी था। उसे केवल इस बात में मजा आता था कि वह दूसरों को परेशान करे, उन्हें सताए। वह अपनी छोटी बहिन रश्मि की आते-जाते चोटी खींच देता, कभी उसके खिलौने तोड़ देता। कालोनी के अन्य बच्चों के साथ खेल ही खेल में किसी बच्चे को धक्का दे देता। वह गिर जाता तो राजू हंसने लगता। स्कूल में भी पढ़ाई की बजाय शरारत ही अधिक करता। मौका पाकर किसी
के बस्ते से कापी, पेंसिल, रबर आदि निकाल कर दूसरे बच्चे के बस्ते में डाल देता। खोजने पर जब दूसरे के बस्ते से कापी या पेंसिल,रबर आदि निकलता तो अध्यापक उस बच्चे को डांटते। राजू खिलखिलाकर हंस पड़ता। कभी वह अपने मम्मी-पापा के साथ किसी रिश्तेदार अथवा किसी परिचित के घर जाता तो वहां भी कोई न कोई शरारत करने से नहीं चूकता। उसके मम्मी-पापा को शर्मिंदा होना पड़ता। कई बार तो वे उसे
अपने साथ ही नहीं ले जाते थे।
ऐसा नहीं था कि उसे शरारत के कारण डांट-फटकार नहीं पड़ती हो,लेकिन उस पर असर ही नहीं होता था। मम्मी-पापा दोनों ही चिंतित थे। उन्हें कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। डांट-फटकार,पिटाई का भी उस पर कोई असर नहीं होता था। प्यार से तो वह समझता ही नहीं था।
उस दिन शाम को वह खेल कर घर लौट रहा था। उसे सड़क के उस पार जाना था। लेकिन वाहनों का रेला था कि खत्म ही नहीं हो रहा था। वह सड़क के खाली होने की प्रतीक्षा करने लगा। तभी उसकी नज़र एक बुजुर्ग व्यक्ति पर गई। वह भी शायद सड़क के उस पार जाना चाहते थे।
राजू के दिमाग में एक शरारत भरा विचार भी आ रहा था। उन बुजुर्ग के सहारे वह भी सड़क पार कर लेगा और फिर उनकी छड़ी छीनकर दूर फेंक देगा। बहुत मजा आएगा। वह मन ही मन हंस पड़ा। वह उन बुजुर्ग के पास आया और उनकी छड़ी पकड़ कर बोला-‘दादाजी,चलिए। मैं आपको सड़क पार करवा दूं।’ बुजुर्ग व्यक्ति खुश हो गए। उन्हें सड़क पार करते देखकर वाहन चालकों ने अपने वाहन धीमे कर लिए थे। वह उनकी छड़ी पकड़ कर
सड़क के उस पार ले आया। ‘अब इनकी छड़ी खींच लेता हूं,मैंने हाथ में तो पकड़ ही रखी है।’उसने सोचा। वह शरारत करने ही वाला था कि तभी एक स्कूटर उनके पास रुका। वे बुजुर्ग बोले-‘मेरा बेटा आ गया।’ राजू ने देखा-पापा की उम्र का एक व्यक्ति स्कूटर पर सवार था। राजू कुछ कर न सका। वे बुजुर्ग बोले-‘बेटा, इस बच्चे ने मुझे सड़क पार करवाई है।’ फिर उन्होंने राजू के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए
आशीर्वाद दिया-'तुम बहुत अच्छे बच्चे हो! ईश्वर हमेशा तुम्हें सुखी रखे।’उनके बेटे ने भी उसे थैंक्स कहा।
फिर बुजुर्ग अपने बेटे के साथ स्कूटर पर बैठकर चले गए।
‘ओह, इनके बेटे को भी अभी ही आना था। शरारत का मौका हाथ से निकल गया।’ वह बुदबुदाया। लेकिन मेरे मन में खुशी-सी क्यों है? वाकई,राजू के मन में तो एक अजीब-सी उमंग थी। उसने खुशी-खुशी घर की ओर दौड़ लगाई। आज तो जैसे उसके पाँव जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। मम्मी-पापा और उसकी छोटी बहिन बाहर लॉन में बैठे थे। मम्मी ने पूछा-‘आज इतना खुश-खुश क्यों लग रहे हो?’
तभी पापा बोले-‘फिर कोई शरारत करके आया होगा। देखना अभी कोई न कोई इसकी शिकायत लेकर आता ही होगा।’
‘नहीं पापा, आज ऐसा नहीं होगा।’ राजू बोला। पापा ने चकित भाव से उसकी ओर देखा।
‘मैं सच कह रहा हूं।’ राजू ने सारी बात बताई, फिर बोला-‘पापा,मैं तो शरारत के मूड में ही था। यह तो गलती से ही एक अच्छा काम मुझसे हो गया। शायद इसी की खुशी मुझे हुई हो।’
मम्मी ने कहा-‘बेटा, शायद नहीं, यही वास्तविकता है। इसमें उन बुजुर्ग के हृदय से निकला ईश्वर का आशीर्वाद भी शामिल है जो उनके माध्यम से तुम्हें मिला है। जब इस छोटे-से नेक काम से तुम्हारा मन इतना खुश हुआ तो सोचो, हमेशा ही अच्छे काम,दूसरों की मदद करने से कितनी खुशी मिलती होगी।’ एक पल रुक कर मम्मी फिर बोलीं-‘बेटा, बड़े-बुजुर्ग तो यही सिखाते आए हैं कि भले ही किसी के सुख में साथी न
बनो लेकिन दु:ख में ज़रूर बनो। इससे मन को बहुत संतुष्टि मिलती है। यही नहीं,जब हम भी कभी किसी कारण से दु:खी होते हैं तो ईश्वर भी अच्छे लोगों के माध्यम से हमारा दु:ख, हमारी परेशानी दूर करवाता है, हमारी मदद भी करवाता है। लेकिन तुम तो हमेशा ही केवल अपने मनोरंजन के लिए किसी को भी दु:खी कर देते हो।’किसी को भी परेशानी में डाल देते हो। कभी सोचा है कि जिन्हें तुम सताते हो,जिनका उपहास
करते हो,जिनके लिए मुसीबत खड़ी कर देते हो,उन्हें कितना दु:ख पहुंचता होगा।’
राजू चुपचाप सिर नीचा किए सुन रहा था। पापा ने कहा-‘बेटा, जो व्यक्ति अच्छा काम करता है, उसकी अनुभूति और भी अच्छे काम करने की ओर प्रेरित करती है। हमें उम्मीद है,तुम आगे भी अच्छे और नेक काम ही करोगे।’
आज पहली बार राजू की आंखों से आंसू टपके। मम्मी-पापा और रश्मि ने ही नहीं,स्वयं राजू ने भी महसूस किया कि यह पश्चाताप के आंसू हैं,जिनसे सारी शरारतें बह गई हैं।
मम्मी-पापा ने उसे गले लगा लिया। रश्मि भी उससे लिपट गई। राजू के दिमाग में बुजुर्ग के कहे शब्द ‘तुम बहुत अच्छे बच्चे हो! ईश्वर हमेशा तुम्हें सुखी रखे।’ घूमने लगे। उसने दृढ़ निश्चय किया कि वह ‘बहुत अच्छा बच्चा’ बनकर ही रहेगा। उसे ईश्वर के आशीर्वाद की अनुभूति अभी तक भी हो रही थी।
- सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
मोबाइल: 09413418701
e-mail:sudhirsaxenasudhi@yahoo.com
गलती से मिली खुशी
राजू देखने में जितना भोला लगता था, उतना ही शरारती भी था। उसे केवल इस बात में मजा आता था कि वह दूसरों को परेशान करे, उन्हें सताए। वह अपनी छोटी बहिन रश्मि की आते-जाते चोटी खींच देता, कभी उसके खिलौने तोड़ देता। कालोनी के अन्य बच्चों के साथ खेल ही खेल में किसी बच्चे को धक्का दे देता। वह गिर जाता तो राजू हंसने लगता। स्कूल में भी पढ़ाई की बजाय शरारत ही अधिक करता। मौका पाकर किसी
के बस्ते से कापी, पेंसिल, रबर आदि निकाल कर दूसरे बच्चे के बस्ते में डाल देता। खोजने पर जब दूसरे के बस्ते से कापी या पेंसिल,रबर आदि निकलता तो अध्यापक उस बच्चे को डांटते। राजू खिलखिलाकर हंस पड़ता। कभी वह अपने मम्मी-पापा के साथ किसी रिश्तेदार अथवा किसी परिचित के घर जाता तो वहां भी कोई न कोई शरारत करने से नहीं चूकता। उसके मम्मी-पापा को शर्मिंदा होना पड़ता। कई बार तो वे उसे
अपने साथ ही नहीं ले जाते थे।
ऐसा नहीं था कि उसे शरारत के कारण डांट-फटकार नहीं पड़ती हो,लेकिन उस पर असर ही नहीं होता था। मम्मी-पापा दोनों ही चिंतित थे। उन्हें कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। डांट-फटकार,पिटाई का भी उस पर कोई असर नहीं होता था। प्यार से तो वह समझता ही नहीं था।
उस दिन शाम को वह खेल कर घर लौट रहा था। उसे सड़क के उस पार जाना था। लेकिन वाहनों का रेला था कि खत्म ही नहीं हो रहा था। वह सड़क के खाली होने की प्रतीक्षा करने लगा। तभी उसकी नज़र एक बुजुर्ग व्यक्ति पर गई। वह भी शायद सड़क के उस पार जाना चाहते थे।
राजू के दिमाग में एक शरारत भरा विचार भी आ रहा था। उन बुजुर्ग के सहारे वह भी सड़क पार कर लेगा और फिर उनकी छड़ी छीनकर दूर फेंक देगा। बहुत मजा आएगा। वह मन ही मन हंस पड़ा। वह उन बुजुर्ग के पास आया और उनकी छड़ी पकड़ कर बोला-‘दादाजी,चलिए। मैं आपको सड़क पार करवा दूं।’ बुजुर्ग व्यक्ति खुश हो गए। उन्हें सड़क पार करते देखकर वाहन चालकों ने अपने वाहन धीमे कर लिए थे। वह उनकी छड़ी पकड़ कर
सड़क के उस पार ले आया। ‘अब इनकी छड़ी खींच लेता हूं,मैंने हाथ में तो पकड़ ही रखी है।’उसने सोचा। वह शरारत करने ही वाला था कि तभी एक स्कूटर उनके पास रुका। वे बुजुर्ग बोले-‘मेरा बेटा आ गया।’ राजू ने देखा-पापा की उम्र का एक व्यक्ति स्कूटर पर सवार था। राजू कुछ कर न सका। वे बुजुर्ग बोले-‘बेटा, इस बच्चे ने मुझे सड़क पार करवाई है।’ फिर उन्होंने राजू के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए
आशीर्वाद दिया-'तुम बहुत अच्छे बच्चे हो! ईश्वर हमेशा तुम्हें सुखी रखे।’उनके बेटे ने भी उसे थैंक्स कहा।
फिर बुजुर्ग अपने बेटे के साथ स्कूटर पर बैठकर चले गए।
‘ओह, इनके बेटे को भी अभी ही आना था। शरारत का मौका हाथ से निकल गया।’ वह बुदबुदाया। लेकिन मेरे मन में खुशी-सी क्यों है? वाकई,राजू के मन में तो एक अजीब-सी उमंग थी। उसने खुशी-खुशी घर की ओर दौड़ लगाई। आज तो जैसे उसके पाँव जमीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। मम्मी-पापा और उसकी छोटी बहिन बाहर लॉन में बैठे थे। मम्मी ने पूछा-‘आज इतना खुश-खुश क्यों लग रहे हो?’
तभी पापा बोले-‘फिर कोई शरारत करके आया होगा। देखना अभी कोई न कोई इसकी शिकायत लेकर आता ही होगा।’
‘नहीं पापा, आज ऐसा नहीं होगा।’ राजू बोला। पापा ने चकित भाव से उसकी ओर देखा।
‘मैं सच कह रहा हूं।’ राजू ने सारी बात बताई, फिर बोला-‘पापा,मैं तो शरारत के मूड में ही था। यह तो गलती से ही एक अच्छा काम मुझसे हो गया। शायद इसी की खुशी मुझे हुई हो।’
मम्मी ने कहा-‘बेटा, शायद नहीं, यही वास्तविकता है। इसमें उन बुजुर्ग के हृदय से निकला ईश्वर का आशीर्वाद भी शामिल है जो उनके माध्यम से तुम्हें मिला है। जब इस छोटे-से नेक काम से तुम्हारा मन इतना खुश हुआ तो सोचो, हमेशा ही अच्छे काम,दूसरों की मदद करने से कितनी खुशी मिलती होगी।’ एक पल रुक कर मम्मी फिर बोलीं-‘बेटा, बड़े-बुजुर्ग तो यही सिखाते आए हैं कि भले ही किसी के सुख में साथी न
बनो लेकिन दु:ख में ज़रूर बनो। इससे मन को बहुत संतुष्टि मिलती है। यही नहीं,जब हम भी कभी किसी कारण से दु:खी होते हैं तो ईश्वर भी अच्छे लोगों के माध्यम से हमारा दु:ख, हमारी परेशानी दूर करवाता है, हमारी मदद भी करवाता है। लेकिन तुम तो हमेशा ही केवल अपने मनोरंजन के लिए किसी को भी दु:खी कर देते हो।’किसी को भी परेशानी में डाल देते हो। कभी सोचा है कि जिन्हें तुम सताते हो,जिनका उपहास
करते हो,जिनके लिए मुसीबत खड़ी कर देते हो,उन्हें कितना दु:ख पहुंचता होगा।’
राजू चुपचाप सिर नीचा किए सुन रहा था। पापा ने कहा-‘बेटा, जो व्यक्ति अच्छा काम करता है, उसकी अनुभूति और भी अच्छे काम करने की ओर प्रेरित करती है। हमें उम्मीद है,तुम आगे भी अच्छे और नेक काम ही करोगे।’
आज पहली बार राजू की आंखों से आंसू टपके। मम्मी-पापा और रश्मि ने ही नहीं,स्वयं राजू ने भी महसूस किया कि यह पश्चाताप के आंसू हैं,जिनसे सारी शरारतें बह गई हैं।
मम्मी-पापा ने उसे गले लगा लिया। रश्मि भी उससे लिपट गई। राजू के दिमाग में बुजुर्ग के कहे शब्द ‘तुम बहुत अच्छे बच्चे हो! ईश्वर हमेशा तुम्हें सुखी रखे।’ घूमने लगे। उसने दृढ़ निश्चय किया कि वह ‘बहुत अच्छा बच्चा’ बनकर ही रहेगा। उसे ईश्वर के आशीर्वाद की अनुभूति अभी तक भी हो रही थी।
- सुधीर सक्सेना 'सुधि'
75/44, क्षिप्रा पथ, मानसरोवर, जयपुर-302020
मोबाइल: 09413418701
e-mail:sudhirsaxenasudhi@yahoo.com
रविवार, 3 फ़रवरी 2013
मंगल सक्सेना की कविता
हम राजर्षियों के वंशज
राजर्षियों ने तप किया था
सत्य शोधा था
हमारे लिए
हम उपकृत हैं
कभी, जब उन्हें
नसों में महकता महुआ
चिटखता गुलाब,
अँगड़ाती रातरानी का जादुई सैलाब
जगाता था,
अपना फर्ज़ निभाता था
तो अपने ध्यान से विगलित
उनकी चेतना में समाया
चिन्तकों की ऊँची जमातवाला क्रोध
उफ़न आता था,
यह हमारी समझ में आता है
कि जीवन का एक भाग
क्यों काट दिया जाता था !
राजगुरुओं ने सत्य जाना था
यह अतल सौर-मण्डल
उनका कितना पहचाना था !
किन्तु अपने नेत्रों से जिन्हें पोसा था !
उन ज्योतिकणों की नियति के अंधकार से घबराकर
जब उन्होंने आँखें मूंद ली थीं-
उस अन्तराल से भयभीत होकर
उन्होंने हमारे युग को कोसा था
सत्य की शोध,
उनका तप,
उनका ज्ञान,
वहीं रुक गए थे
हमें केवल निरर्थकता, अनिश्चय
विरासत में देने के लिए
वासना विहीन अंगारे की तरह चुक गए थे !
लेकिन उस अन्तराल को हमने पार किया है
अँधेरे को भी प्यार दिया है
हमने विष जिया है।
महज़ उस भूल को सुधारने के लिए
जो हमारे बुज़ुर्गों ने की थी
जो काल हमारे भविष्यत का सुन्दर आँगन होता
हमने धुँआले गलियारे की तरह पाया
अपना नर्म पँखों-सा विश्वास खोया
अँधेरे में झपटते हिंसक पंजों में
हमने संवेदनाओं के सुकुमार खगकुल को भी लुटाया
मगर फिर भी
अपनी ज्ञान-पिपासु
स्वाधीन शावक-मृगी-आत्मा को
यहाँ तक, उजाले तक पहुँचाया !
और यह भूल
जिसे जानबूझकर करना
हमारे व्यवस्थापकों-शासक-पिताओ ! तुम्हारे लिए
स्वाभाविक था
अब हमारे लिए सम्भव नहीं है !
तुमने सत्य पाया
किन्तु कृपणता से बाँटा
एक इन्सान को वर्गों में काटा, वर्णों में छाँटा
इन्सानियत को अपनी पूँजी बनाया
ओ हमारे ज्ञानी पिताओ !
सत्य देने का मोल
तुमने कितना महँगा लगाया?
अब वही युग हमारे शीश पर
शिव के चन्द्र की तरह सुशोभित है
जिसे तुमने कलंकित कहा था
जिसने हमें विराट करुणा और सौहार्द का
शारदीय क्षीर-पात्र दिया है,
वही युग
हमारी तपस्या के द्वारा
अतीत के दाग़ से
उन्मोचित है !
हमारी तपस्या
हमारे रक्त की मेघमयी ऊष्मा से खण्डित नहीं होती !
हमारी तपस्या
अप्सराएं भंग नहीं करतीं !
क्योंकि ओ वीतरागी पिताओ !
हम जीवन के प्रति कृपण नहीं हैं !!
हमारे युग में
वे अप्सराएं सरस उद्यान की
समान स्वाधीन, सत्यार्थिनी
पुष्पिता सूर्यमुखी चेतनाएँ हैं !
उन्हें अपने तप भंग की
उतनी ही चिन्ता है, जितनी हमें !
वाष्पीय सांसों से
संस्पर्श से बचने की
उनमें भी उतनी ही आतुरता है
जितनी तुम्हारे युग में
पवित्र जिज्ञासा सहने की तपश्चर्या
तोड़ डालने की बेकली
देवताओं के महाराजा इन्द्र को रहती थी !
और आज इन्द्र औंधे मुँह
अपने सिंहासन से नीचे पड़ा है
क्योंकि
अप्सराएं हमारी बन्धु हैं
किसी निरंकुश की विलास प्रियाएं नहीं !!
आज हम धरती के नर-नारी
बन्धुत्व की अगाध शक्तियाँ लेकर
अपनी चेतना के विस्तार में
समस्त सौर मण्डल समोये
सम्पूर्ण सत्य पाने को लालायित
तप:लीन, पर्युत्सक,
अपनी सन्तानों के माध्यम बने
भविष्यत को केवल एक परम्परा सौंपते हैं
कि तुम्हें कहे,
'ओ, हमारे मनीषी पिताओ !
हम तुम्हारे कृतज्ञ हैं !
लेकिन हमें हमारे युग से भी
उतना ही प्यार है !
हम चाहे मर्यादा पुरुषोत्तम न हों
किन्तु हमारा जीवन
हमारे युग का निर्विकार उद्गार है !!'
(1965 में प्रकाशित 'मैं तुम्हारा स्वर' काव्य-संग्रह से साभार)
-मंगल सक्सेना
राजर्षियों ने तप किया था
सत्य शोधा था
हमारे लिए
हम उपकृत हैं
कभी, जब उन्हें
नसों में महकता महुआ
चिटखता गुलाब,
अँगड़ाती रातरानी का जादुई सैलाब
जगाता था,
अपना फर्ज़ निभाता था
तो अपने ध्यान से विगलित
उनकी चेतना में समाया
चिन्तकों की ऊँची जमातवाला क्रोध
उफ़न आता था,
यह हमारी समझ में आता है
कि जीवन का एक भाग
क्यों काट दिया जाता था !
राजगुरुओं ने सत्य जाना था
यह अतल सौर-मण्डल
उनका कितना पहचाना था !
किन्तु अपने नेत्रों से जिन्हें पोसा था !
उन ज्योतिकणों की नियति के अंधकार से घबराकर
जब उन्होंने आँखें मूंद ली थीं-
उस अन्तराल से भयभीत होकर
उन्होंने हमारे युग को कोसा था
सत्य की शोध,
उनका तप,
उनका ज्ञान,
वहीं रुक गए थे
हमें केवल निरर्थकता, अनिश्चय
विरासत में देने के लिए
वासना विहीन अंगारे की तरह चुक गए थे !
लेकिन उस अन्तराल को हमने पार किया है
अँधेरे को भी प्यार दिया है
हमने विष जिया है।
महज़ उस भूल को सुधारने के लिए
जो हमारे बुज़ुर्गों ने की थी
जो काल हमारे भविष्यत का सुन्दर आँगन होता
हमने धुँआले गलियारे की तरह पाया
अपना नर्म पँखों-सा विश्वास खोया
अँधेरे में झपटते हिंसक पंजों में
हमने संवेदनाओं के सुकुमार खगकुल को भी लुटाया
मगर फिर भी
अपनी ज्ञान-पिपासु
स्वाधीन शावक-मृगी-आत्मा को
यहाँ तक, उजाले तक पहुँचाया !
और यह भूल
जिसे जानबूझकर करना
हमारे व्यवस्थापकों-शासक-पिताओ ! तुम्हारे लिए
स्वाभाविक था
अब हमारे लिए सम्भव नहीं है !
तुमने सत्य पाया
किन्तु कृपणता से बाँटा
एक इन्सान को वर्गों में काटा, वर्णों में छाँटा
इन्सानियत को अपनी पूँजी बनाया
ओ हमारे ज्ञानी पिताओ !
सत्य देने का मोल
तुमने कितना महँगा लगाया?
अब वही युग हमारे शीश पर
शिव के चन्द्र की तरह सुशोभित है
जिसे तुमने कलंकित कहा था
जिसने हमें विराट करुणा और सौहार्द का
शारदीय क्षीर-पात्र दिया है,
वही युग
हमारी तपस्या के द्वारा
अतीत के दाग़ से
उन्मोचित है !
हमारी तपस्या
हमारे रक्त की मेघमयी ऊष्मा से खण्डित नहीं होती !
हमारी तपस्या
अप्सराएं भंग नहीं करतीं !
क्योंकि ओ वीतरागी पिताओ !
हम जीवन के प्रति कृपण नहीं हैं !!
हमारे युग में
वे अप्सराएं सरस उद्यान की
समान स्वाधीन, सत्यार्थिनी
पुष्पिता सूर्यमुखी चेतनाएँ हैं !
उन्हें अपने तप भंग की
उतनी ही चिन्ता है, जितनी हमें !
वाष्पीय सांसों से
संस्पर्श से बचने की
उनमें भी उतनी ही आतुरता है
जितनी तुम्हारे युग में
पवित्र जिज्ञासा सहने की तपश्चर्या
तोड़ डालने की बेकली
देवताओं के महाराजा इन्द्र को रहती थी !
और आज इन्द्र औंधे मुँह
अपने सिंहासन से नीचे पड़ा है
क्योंकि
अप्सराएं हमारी बन्धु हैं
किसी निरंकुश की विलास प्रियाएं नहीं !!
आज हम धरती के नर-नारी
बन्धुत्व की अगाध शक्तियाँ लेकर
अपनी चेतना के विस्तार में
समस्त सौर मण्डल समोये
सम्पूर्ण सत्य पाने को लालायित
तप:लीन, पर्युत्सक,
अपनी सन्तानों के माध्यम बने
भविष्यत को केवल एक परम्परा सौंपते हैं
कि तुम्हें कहे,
'ओ, हमारे मनीषी पिताओ !
हम तुम्हारे कृतज्ञ हैं !
लेकिन हमें हमारे युग से भी
उतना ही प्यार है !
हम चाहे मर्यादा पुरुषोत्तम न हों
किन्तु हमारा जीवन
हमारे युग का निर्विकार उद्गार है !!'
(1965 में प्रकाशित 'मैं तुम्हारा स्वर' काव्य-संग्रह से साभार)
-मंगल सक्सेना
बुधवार, 23 जनवरी 2013
मंगल सक्सेना की कविता
आधुनिक पोशाकों के विरोधियों से
आधुनिक पोशाकों के विरोधियों से
सुथरी-स्वच्छ गुलाबी पँखुरियों वाली
कमलकली की स्वस्थ गंठीली देह पर
कसी हुई हरी अँखडिय़ों-सी निर्मल पोशाकें
मेरे देश की आधुनिक नारियों की
तुम्हें सुहाती नहीं, मैं जानता हूं!
क्योंकि मैं पहचानता हूं
तुम्हारे अन्तर में विराजमान उस
वानप्रस्थी बूढ़े को
जो सदियों से अधूरे आदर्शों के कुचक्रों में फंसकर
जवानी लगते ही गृहस्थाश्रम त्याग बैठा था
कि जिसके सिर पर शासकों का कूटज्ञ समाजवेत्ता
धार्मिकता और शालीनता के नाम से
निराशा, पलायन और उमंगहीनता का
प्रभावशाली तेल मलता था।
और जो आज भी हीनता की अचार जैसी अनुभूति के
चटखारे लेता है।
जिन्हें उसने समझा नहीं
उन वेदों और पुराणों का हवाला देता है!
गालियों के कीच में
नाक सिकोड़ डुबा लेता है
क्योंकि उन पोशाकों का यही अपराध है
कि वे शरीर की चुस्ती और सामर्थ्य को
निष्कपट भाव से प्रगट करती हैं
किन्तु जिसकी ऊष्मा से बूढ़े फेफड़ों में
खाँसियां उठती हैं!
2.
मेरे देश के आर्थिक पिंजरों की
हिंसक चुनौतियाँ स्वीकारने वाली सबलाएं
समय के यन्त्रों से होड़ लेने वाली गति लिए
घर ही नहीं
देश की दरारों को भरने की शक्ति लिए
ढीली देहों में विद्युत जगा देने की मुक्ति लिए
अगर आज बीसवीं शताब्दि के उत्तरार्द्ध आँगन में
स्वाधीन-समर्थ-गतिवान-मेधावी पीढिय़ों की
खगोल छान लेने वाली
महामाया जननी बनने के लिए
वज़नी कपड़ों के वहमों, अलंकृत आडम्बरों में छुपे
मुँहचोर अत्याचारों को
निर्भीकता से उतार फेंकती हैं
तो तुम्हें प्रसन्नता नहीं होती !
क्योंकि पराधीन होने
और पराधीन बनाने वाली तुम्हारी लिप्सा
प्रगति के पँखों में लटक जाने वाली
तुम्हारी रूढि़ता
प्रणय को ऐश कीने वाली
तुम्हारी सामन्तवादिता
इन्सानियत और नारीत्व को
पुरुष की भ्रूकृपा समझने वाली मतान्धता
हरम के रेशमीन पर्दे उठाने को आज भी ललकती
तुम्हारी ख़याली उँगलियों की लज्जाहीनता
नारी को पूँजी समझने वाली सर्पिणी नज़रों की विलासिता
मैं जानता हूँ कि
तिलमिलाकर, छटपटाकर
अपने विकारों की आग में
भक् से जल उठती है !
मुझे पता है कि
तुम्हारे मानस का-
गौरैया की गर्दन दबोचता बाज
ठहरे जल में अभी ऊब-डूब रहा है।
मरा नहीं !
3.
यह भी मैं जानता हूँ कि मेरी साफ़गोई
तुम्हें बुरी लगेगी
क्योंकि तन-वसन और वाणी की सादगी से
तुम्हारा अभिप्राय
खरों जैसे कान
चादरों-से परिधान
और 'जान बख्शी जाए माई लॉर्ड !' वाला
शब्द-ज्ञान रहता है !
लेकिन मैं तुमसे
विनयपूर्वक पूछता हूँ कि
हे मेरे दुस्साहसी दोस्तो !
मुझे ईमानदारी से बताओ
क्या तुम्हें सुन्दरता हथियाने की आदत नहीं?
सात आवरणों में छुपा न हो अगर
पूजा-सा पावन रूप
तो क्या उसे कुचल डालना
तुम्हारी माँसपेशियों की बग़ावत नहीं?
तुम्हें क्यों नहीं लगता कि
जैसे नक्षत्रों ने तेजस्वी तन
गुलाब की पँखुरियों से लिपटकर शीतल किया हो
और हंसों की त्वचा जैसे परिधान में
नारी संज्ञा धरकर
अनागत को वरण करने के लिए
जीवन की विस्तृत कर्मस्थली में
तुम्हें साहचर्य दिया हो?
नक्षत्र-प्रसूनों का समादर करना
अगर तुम्हें नहीं आया
कुण्ठाओं की काई से
अंत:करण का परिष्कार करना
अगर तुम्हें नहीं आया
तो मुझे खेद है कि तुम्हारी लाचारी
तुम्हें कच्चे तट के हताश दलदल में दफ़ना देगी !
क्योंकि मानव-सभ्यता की वेगवती धारा
आगामी पीढिय़ों में
उन महान् शक्तिमान नर-नारियों को
जन्म देने वाली है
जो अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल से
पृथ्वी को एक यान की तरह
इस दिगन्ती आकाश में
मनचाही दिशाओं में चलाएंगे
वे समस्त रहस्यों के ज्ञाता
ब्रह्मलीन होने से पूर्व
ब्रह्मा हो जाएंगे !!
तुम्हीं कहो,
तब कम्बलों में लिपटी
अपनी भार्या को
कौन-से घर के अँधेरे कमरे में
कौन-से दफ़्तर से लौटकर
अपनी संस्कृति का परदादों वाला कोट उतारकर
कौन-सी खूँटी पर
टाँगने के लिए तुम दोगे?
(1965 में प्रकाशित 'मैं तुम्हारा स्वर' काव्य-संग्रह से साभार)
-मंगल सक्सेना
संपर्क- 53, प्रेम नगर, केशव नगर कॉलोनी, विश्वविद्यालय मार्ग,
उदयपुर-313001
मोबाइल: 09460252555
बुधवार, 28 नवंबर 2012
कविता- मुक्त हँसी
मुक्त हँसी
मैं मुक्त हँसी हूँ
रौशनी ने मुझे घेर रखा है।
अँधेरे में छिपे उदास चेहरो
तुम भी रौशनी में आ जाओ
मेरे संग-संग मुक्त हँसी का गीत गाओ।
सुनो!
जब हम साथ मिलकर हँसेंगे,
ज्वालामुखी के मुहाने बैठी दुनिया की
शक्ल बदल जाएगी।
कविता में जब होगी हलचल,
ज़िंदगी मुक्त हँसी में
ढल जाएगी!
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
मैं मुक्त हँसी हूँ
रौशनी ने मुझे घेर रखा है।
अँधेरे में छिपे उदास चेहरो
तुम भी रौशनी में आ जाओ
मेरे संग-संग मुक्त हँसी का गीत गाओ।
सुनो!
जब हम साथ मिलकर हँसेंगे,
ज्वालामुखी के मुहाने बैठी दुनिया की
शक्ल बदल जाएगी।
कविता में जब होगी हलचल,
ज़िंदगी मुक्त हँसी में
ढल जाएगी!
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
मंगलवार, 27 नवंबर 2012
कविता- प्रार्थना को चहचहाने के बाद.....
प्रार्थना को चहचहाने के बाद.....
एक प्रार्थना की तरह है
उस चिड़िया का जीवन...
जो अकेली है
अपने घोंसले में।
ज़रूरी है प्रार्थना
क्योंकि चिड़िया को अभी और
जीने की अभिलाषा है।
मुक्त आकाश में विचरने का मोह
भंग हो गया होता तो
बात समझ में भी आती,
लेकिन घोंसले की तनहाई से मोह
छूटता जो नहीं !
सोचती है चिड़िया और फिर
ख़ुशी से फुदकती है,
प्रार्थना को चहचहाने के बाद।
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
एक प्रार्थना की तरह है
उस चिड़िया का जीवन...
जो अकेली है
अपने घोंसले में।
ज़रूरी है प्रार्थना
क्योंकि चिड़िया को अभी और
जीने की अभिलाषा है।
मुक्त आकाश में विचरने का मोह
भंग हो गया होता तो
बात समझ में भी आती,
लेकिन घोंसले की तनहाई से मोह
छूटता जो नहीं !
सोचती है चिड़िया और फिर
ख़ुशी से फुदकती है,
प्रार्थना को चहचहाने के बाद।
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'
बुधवार, 31 अक्टूबर 2012
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