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स्व. प्रकाश जैन
(28 अगस्त, 1926 - 13 मार्च, 1988) |
कवि, साहित्यकार और लहर के यशस्वी संपादक स्व. प्रकाश जैन की पुण्य-तिथि के अवसर पर
'बोलिए, अब आपका क्या विचार है?'श्रद्धेय प्रकाश जी से
मुझे भी बहुत स्नेह मिलता रहा है। स्व. प्रकाश जैन की पुण्य-तिथि के अवसर पर बरसों पुरानी यादें स्मृति में तिर
आईं। याद आता है, जब राजस्थान साहित्य अकादमी ने महाविद्यालय स्तर पर कविता
के लिए प्रथम पुरस्कार की
घोषणा की थी, तब श्री प्रकाश जैन ने स्वयं मेरे घर आकर मेरी पीठ थपथपाई
थी। इसी तरह जब मेरे पहले-पहले काव्य-संग्रह सूरज का लहू: पोस्टर की न केवल
भूमिका लिखी बल्कि उसके मुद्रण तक में व्यक्तिगत रूप से रुचि ली। स्थानीय
सूचना केंद्र में उस पुस्तक का विमोचन हुआ था। तत्कालीन जनसंपर्क अधिकारी
द्वारा मुझे यह कह कर हतोत्साहित किया गया था कि हॉल के बजाय संगोष्ठी-कक्ष
में ही विमोचन
करवा लें। विमोचन समारोह में घर वालों सहित दस-बीस लोगों से अधिक मौजूद
नहीं रहते। उनमें भी दो-चार लोग सूचना केंद्र के भी शामिल हैं। उनके मन में
कहीं न कहीं ऐसे समारोह के प्रति उदासीनता के भाव का कारण संभवत: यह था कि
अजमेर के एक वरिष्ठ प्राध्यापक-साहित्यकार की दो पुस्तकों का विमोचन
दिल्ली से आए एक वरिष्ठ लेखक ने तीन दिन पूर्व ही किया था। जिसके हवाले से
उन्होंने मुझे यह बात
कही थी।
मैंने इस बारे में श्रद्धेय प्रकाश जी से बात की, मेरे
अग्रज श्री अनिल लोढ़ा, सुरेन्द्र चतुर्वेदी, गोपाल गर्ग, आदरणीय कान्ता
मारवाह, डॉ. हरीश सहित अन्य सभी लोग, जो मुझे सदैव स्नेह देते थे, सभी ने
उत्साह दिलाया।
उक्त विमोचन समारोह
सूचना केंद्र के हॉल में ही हुआ। प्रकाश जी के सुझाव पर मैंने
निमंत्रण-पत्र छपवाए थे। उन्हीं के
सुझाव पर व्यक्तिगत तौर पर अपने तमाम प्रियजनों को घर पर देकर आया था। 'जब
आप व्यक्तिगत रूप से किसी को आमंत्रित करते हैं तो उसके कार्यक्रम में आने
की संभावना अधिक बढ़ जाती है', प्रकाश जी का यह मंत्र मेरे काम आया था। शायद
ही कोई ऐसा होगा जो नहीं आ सका हो। शायद..... इसलिए कि मैं ही उन्हें
आमंत्रित करने से चूक गया होऊंगा, ऐसा मैं मानता हूं.....बहरहाल, सूचना
केंद्र का हॉल शहर के तमाम
गणमान्य अतिथियों खचाखच भर गया था। विचारोत्तेजक माहौल बन गया था। कविता
पर खूब चर्चा हुई और समारोह लगभग डेढ़ घंटे तक जीवंत प्रस्तुति से ओतप्रोत
रहा। संयोग से तत्कालीन जनसंपर्क निदेशक महोदय जो उस दिन अजमेर आए थे,
सूचना केंद्र में, उन्हें वही जनसंपर्क अधिकारी महोदय मेरी पुस्तक के
विमोचन समारोह में मंच पर आसीन करवाने के लिए आतुर हो गए थे। स्व. प्रकाश
जैन के निर्देश पर
हमने उन्हें सादर आमंत्रित किया था। (बाद में उन्होंने मुझे पत्र द्वारा
बधाई भी दी थी।)
कवि अजमेर का, प्रकाशक अजमेर का, श्रोता -आयोजक अजमेर
के, तो फिर विमोचन जिनसे करवाया जाए वो भी अजमेर के ही होने चाहिए और श्री
प्रकाश जैन ही विमोचन करेंगे। प्रकाश जी का कहना था कि चूंकि पुस्तक की
भूमिका उन्होंने ही लिखी है, अत: उनके द्वारा ही विमोचन.....यह ठीक
नहीं.....लेकिन यह मेरी जिद थी। बाहर
से किसी को बुलाने में संशय था कि यदि वे नहीं आ पाए तो....और हुआ भी यही
था। दिल्ली से श्री राजेन्द्र अवस्थी जी को न्योता दिया था, लेकिन उन्होंने
मेरे संशय को ही बल दिया और वे नहीं आ सके......'अपरिहार्य कारणों से आने
में असमर्थ हूं, क्षमा चाहता हूं....कार्यक्रम की शुभकामनाएं .....'
प्रकाश जी को यह संदेश दिखाया गया और कहा- 'बोलिए, अब आपका क्या विचार है?'
प्रकाश जी के पास अब बच निकलने का
कोई रास्ता नहीं था। 'बेटा सुधीर, तुम्हारी जिद को मानना ही पड़ेगा।' और
उन्होंने मेरी उस तरुणाई की जिद को भरपूर मान दिया। पूरे उत्साह से
कार्यक्रम में न केवल सक्रिय भागीदारी दिखाई बल्कि ओजस्वी वक्तव्य भी दिया।
बाद में उन जनसंपर्क अधिकारी ने आश्चर्य-मिश्रित शब्दों में स्वीकार किया
था कि हां, ऐसा भी विमोचन समारोह हो सकता है.....
हम अक्सर
देखते थे कि बड़े-बड़े
साहित्यकार जब अजमेर आते थे, प्रकाश जैन से उन्हें सहज रूप से बतियाते
देखते थे, तब यदि हम जैसे नौसिखिए भी उनके पास बैठे होते थे तो वे हमारा भी
परिचय करवाना नहीं भूलते थे। रेल पटरी के उस पार, उनके घर तो जब मरजी
होती, जाते ही रहते थे। आदरणीया मनमोहिनी जी वैसा ही लाड-प्यार दिखाती थीं,
हिमांशु और संगीत भी उतना ही स्नेहिल भाव दर्शाते थे।
स्व. प्रकाश जैन देश
के जाने-माने साहित्यकार
एवं कवि थे,'लहर' पत्रिका के संपादक के रूप में जाने जाते थे, यह सब हमें
अपने बचपन के दिनों से ही ज्ञात था। इतने बड़े कवि जितने सहज उतने ही घर के
सदस्य भी। बिलकुल घरेलू वातावरण। कहीं कोई घमंड, पाखंड नहीं, सरल, सहज
सहृदीय अपनापन। मैं ही नहीं, मेरे जैसे अनेक साथी भी इस बात के साक्षी
होंगे।
उन दिनों जब भी कोई बड़ा कवि अजमेर में आता, रास्ते में
श्रद्धेय प्रकाश जैन मिल जाते,
बड़े भाई अनिल लोढ़ा मिल जाते, गोपाल गर्ग, सुरेन्द्र चतुर्वेदी मिल जाते,
तुरंत रोक कर बताते अथवा संदेश भिजवा देते कि अमुक कवि, आज अजमेर में हैं,
उनके सम्मान में अमुक स्थान पर (वैसे स्थान अधिकतर सूचना केंद्र ही होता
था।) कवि-गोष्ठी रखी है, शाम चार बजे, डायरी लेकर पहुंच जाना..... और हम
पहुंच जाते थे। हम उदीयमानों को भी तब उतनी ही वाह-वाही मिलती थी कि बाहर
से आने वाला अतिथि कवि भी
देखता ही रह जाता था।
इतना हौसला अफजाई, इतना प्रोत्साहन....यह प्रकाश जैन ही की देन थी, जिसे ऊपर वर्णित नाम वाले भी सहजता से निभाते रहे.....
पता नहीं, क्या
अब भी अजमेर में वैसा ही अपनापन, वैसी ही आत्मीयता, वैसा ही छोटों के
प्रति बड़ों का लगाव, बड़ों के प्रति छोटों का आदर सम्मान और आगे बढ़ाने का
निस्स्वार्थ भाव, और वैसी ही जीवंतता है?
अभी बस इतना ही..... मैं भी
कुछ कहने का लोभ संवरण नहीं कर
पाया और श्रद्धेय प्रकाश जी की स्मृतियों में कुछ क्षण खो गया।
-सुधीर सक्सेना 'सुधि'मो. 09413418701
e-mail: sudhirsaxenasudhi@yahoo.com