गुरुवार, 1 मार्च 2012

कविता- आख़िर कब तक !

आख़िर कब तक !
आख़िर कब तक !
सहे ज़ुर्म उन आतंकवादियों के
आख़िर कब तक !
सजा क्यों नहीं मिल रही है
मुज़रिमों को
आख़िर कब तक !
आँखों से बहते हैं आंसू,
हज़ार मासूमों की जान ली,
आख़िर कब तक........... !
आख़िर कब तक !
लड़ेंगे फ़ौजी उन आतंकवादियों से !
कब तक !
क्यों वे खेले खून की होली,
हमारे साथ.
कब तक !
आख़िर कब तक !
सहते हैं ज़ुर्म
लेकिन कब तक !
कब तक बनेंगे कठपुतलियां,
उनके हाथों की,
कब तक !
आख़िर कब तक !
बस अब दिल भी बोल उठा है,
कब तक,
आख़िर कब तक !

-आर्द्रा सक्सेना,
13 वर्ष, जयपुर

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