बुधवार, 26 जनवरी 2011

मंगल सक्सेना की कविता

युद्ध का आतंक
मैंने कभी युद्ध नहीं देखा
क्या वह इतना ही त्रासदायक है
जितना उसका आतंक ?


कभी अपने ख़ून को बहुत ठंडा
कभी बहुत गर्म महसूस करना और
यह प्रतीक्षा करना कि कब बम गिरे
जीने से कहीं आसान हो जाए मरना!


विशाल हवाई जहाजों का उंगलियों की पोरों को चीर कर
कानों में उतर जाना
हतभाग्य, अधूरी क़ब्र-सी खाई में पड़े
धड़कते सीने पर मुर्दा मांस का बोझ उठाए
उन शब्दों को भिंचे हुए दांतों में सडऩे देना
कि ‘मेरी प्रिया, मेरे रहते तेरा कोई क्या बिगाड़ सकता है?’
और पास की खाई तक फैले हुए ख़ून में
सने हुए गजरों पर नज़र का पछाड़ खाकर मर जाना!
शर्म के आवेग में भी अवश तनी गर्दन को झुका नहीं पाना
और दिल के चीथड़े करके जलते हुए मलबे में फेंक देना!

संकल्प से नहीं
‘सायरन’ की आवाज़ पर गतिमान होना!
और यह सोचना कि किसी अखब़ार के कोने में
छपी सूची का एक नाम होने में
और इस अस्तित्व को ढोने में
इतना ही फ़र्क है

जितना हॉकर के हाथों में बिकते अखब़ार में
और पाठक की नज़रों से गुज़रे समाचार में!


शासकों के वक्तव्य सुनकर
यह फिजूल समझना कि जीने का अर्थ ढूंढ़ा जाए
नेताओं पर गर्व करने की बात कहना
और मन में पछताना कि
न युद्ध होता है, न युद्ध मिटता है
एक सिर्फ़ ऐलान सारी देह की नसों में गूंजता है।
‘शांति के लिए युद्ध करेंगे’
और कपाल को फोड़कर प्रश्न बाहर आते हैं।
भयानक पक्षियों की तरह फडफ़ड़ाते हैं
‘कब, कब, कब ? ? ?’
‘शांति के लिए युद्ध करेंगे, लेकिन कब ? लेकिन कब?’


और अपने ही हाथ, अपने ही हाथ को मरोडऩे लगते हैं!
क्या युद्ध इन्हें मरोड़कर तोड़ देगा?
या इस मरोडऩे से मुक्ति दिलाएगा?
मैंने कभी युद्ध नहीं देखा।
क्या वह इतना ही त्रासदायक है
जितना उसका आतंक ?
- मंगल सक्सेना

1 टिप्पणी:

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    भारतीय ब्लॉग लेखक मंच

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