मंगलवार, 16 मार्च 2010

कोई नहीं बोलता

अपनी तनहा शामें

उस सुनसान सड़क को

सौंप रखी हैं

जिस पर कभी हम

साथ-साथ चलते थे।

पृथ्वी का स्पर्श पांव करते हैं।

आकाश को सिर्फ़ आँखें देखती हैं।

यह राज़ की बात नहीं,

उस रात की बात है,

जब तुमने कहा था-

सुनो, आकाश की धड़कनें सुनो!

और तभी चाँद को बादलों ने घेर लिया था।

तब भी कोई नहीं बोला था।

आज भी कोई नहीं बोलता।

सिर्फ़ मेरे पांवों की पदचाप सुनता हूँ मैं।

कहता हूँ मैं अपना इतिहास।

सुनो रोशनी! मैंने कल तुम्हें एक ख़त लिखा था

पर लिखने के बाद ये ख़याल आया-

तुम्हारा पता तो

अँधेरे ने मुझसे छीनकर

रख लिया है अपने पास!

-सुधीर सक्सेना 'सुधि'


2 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुत लिखते हैं आप। अपनी कविता मन ही नहीं मिला कहीं से पढ़वा दीजिये, कहीं नहीं मिला रही है वो।

    बालहंस में पढ़ी थी।

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